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के प्रथम पुत्र भरत चक्रवर्ती के नाम पर ही इस देश का नाम भारत वर्ष पड़ा है। युवराज ऋषभदेव ने अपने | पुत्रों को तो शस्त्रादि विद्याओं में निपुण किया और ब्राह्मी-सुन्दरी को अक्षर एवं अंकविद्या सिखाई। | कर्मभूमि की सभी विद्याओं और कलाओं के मूलजनक राजा ऋषभदेव ही थे। यदि वे युवावस्था में ही दीक्षित हो जाते तो इन विद्याओं और कलाओं का विकास संभव नहीं था। वस्तुत: तीर्थंकर ऋषभदेव तीर्थ प्रवर्तक होने के साथ-साथ युगप्रवर्तक भी थे।
उत्तम पुत्र-पुत्रियों के परिवार से सुशोभित युवराज ऋषभदेव एक बार सिंहासन पर विराजमान थे। वहाँ | ब्राह्मी एवं सुन्दरी दोनों पुत्रियों ने आकर विनयपूर्वक पिताश्री को प्रणाम किया। पिताश्री ने उन्हें गोद में बिठाकर उनके माथे पर प्यार से हाथ फेरा और उनका चित्त प्रसन्न करने हेतु हास्य-विनोद करते हुए उनके गुणों की प्रशंसा की। फिर कहा - तुम बुद्धिमान तो हो ही तुम्हें यदि विद्या और पढ़ा दी जाये तो तुम्हारा जन्म सार्थक हो जायेगा; विद्या की महिमा दर्शाते हुए उन्होंने कहा है कि -
विद्याधन ही सर्वश्रेष्ठ धन है, इसे चोर चुरा नहीं सकते, राजा हड़प नहीं सकते। भाई बांट नहीं सकते, यह खर्च करने पर घटती नहीं, बल्कि दूसरों को बांटने पर बढ़ती ही है; अत: विद्याधन सब धनों में प्रधान है और हाँ, सर्वविद्याओं में अध्यात्म विद्या का तो कहना ही क्या है ? वह तो सर्वश्रेष्ठ है ही। इससे सर्व मनोरथ पूर्ण होते हैं। अत: अक्षर और अंकविद्या के माध्यम से तुम अध्यात्म विद्या का अर्जन करो।।
ऐसा कहकर ऋषभदेव ने दोनों पुत्रियों को अक्षर एवं अंक विद्या सिखाई। पिता ही जिनके गुरु थे - ऐसी दोनों पुत्रियाँ समस्त अंक व अक्षर विद्याओं में पारंगत हो गईं।
पिताश्री ने भरत-बाहुबली आदि सभी पुत्रों को भी चित्रकला, नाट्यकला आदि लौकिक विद्यायें तो पढ़ाईं ही, साथ में उन्हें भी अध्यात्म विद्या में पारंगत किया।
स्था ऋषभदेव को जन्मे २० लाख पूर्व हुए ही थे कि इधर तीसरा काल समाप्त होने को था, चौथा काल सर्ग || आते-आते भोगभूमि की व्यवस्था समाप्त होकर कर्मभूमि प्रवर्तन का समय निकट था। कल्पवृक्ष मुरझा गये ||
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