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पिता पुत्र के अनुरागवश और कुमार ऋषभ की गंभीरता के कारण ऋषभ की परिणति पहचानने में चूक गये थे। | अरे भाई ! कभी-कभी भूमिका की सही जानकारी नहीं होने से भी भ्रम उत्पन्न होता है। माता-पिता
के अति अनुराग में भी पुत्रों की थोड़ी-सी वैराग्यवृत्ति बहुत अधिक प्रतीत होती है। उन्हें आशंका होती है | कि काश! हमारा पुत्र दीक्षित न हो जाय । जबकि वस्तुतः ऋषभ में ऐसी बात नहीं थी।
नाभिराज और मरुदेवी का यह सोचना कि “यह तो शादी ही नहीं करेगा” उनके अति अनुराग का ही द्योतक था। उनके वैराग्यमयी सदाचारी यौवन अवस्था में शादी करने का सहज राग तो तब भी था ही, तदनुसार ही तो उन्होंने 'हाँ' की थी। और वैसी वैराग्य वृत्ति के रहते उनका नीलांजना का नृत्य देखना चौथे गुणस्थान की भूमिका में अनुचित नहीं कहा जा सकता; क्योंकि उम्र से धार्मिक प्रवृत्ति और अंतरंग वैराग्यवृत्ति को नहीं नापा जा सकता । नापना भी नहीं चाहिए।
हाँ, इन्द्र-इन्द्राणियों, राजा-रानियों का एकसाथ नाचना साधु-सन्तों और ब्रह्मचारियों को कैसे सुहा सकता है? क्योंकि वे तो इस राग-रंग की भूमिका को पार कर चुके होते हैं। लौकान्तिक देव भी तो दीक्षाकल्याणक के पहले राग-रंग के उत्सवों में नहीं आते, क्योंकि वे भी ब्रह्मचारी होते हैं।
महाराजा नाभिराज ने सुन्दर, सुशील, सती और शांत स्वभाव की यशस्वी और सुनन्दा नामक दो कन्याओं के साथ युवराज ऋषभदेव का विवाह मंगल महोत्सव के साथ कर दिया । वे दोनों कन्यायें राजा कच्छ एवं महाकच्छ की बहनें थीं। विवाहोपरान्त सुख से समय बीत रहा था। ___ अनेक शुभलक्षणों से सहित ज्येष्ठ पुत्र उत्पन्न हुआ। जिसका नाम भरत रखा गया। निमित्तज्ञानियों ने शुभ लक्षण देखकर बताया कि यह चक्रवर्ती राजा होगा।
युवराज ऋषभदेव की दो पत्नियाँ थीं - नन्दा (यशस्वी) और सुनन्दा । महारानी नन्दा से भरतादि सौ | सर्ग ॥ पुत्र और ब्राह्मी नाम की पुत्री थी और सुनन्दा से बाहुबली नामक पुत्र और सुन्दरी नामक पुत्री थी। ऋषभदेव ॥७
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