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॥ शतमति मंत्री का जीव धर्म की निंदा के फल में जो दुःख भोग रहा है, उस नारकी के दुःखों की चर्चा
करते हुए प्रीतिंकर केवली कहते हैं - "वे नारकी पूर्व वैर का स्मरण कर-कर के परस्पर लड़ते हैं, परस्पर | एक-दूसरे को कोल्हू में पेल देते हैं, खौलते तेल से भरी कढ़ाई में डाल देते हैं। जो मांसाहारी हैं, उनका मांस काट-काटकर खा जाते हैं। जो परस्त्रीरत थे, उन्हें लोहे की धधकती पुतलियों से आलिंगन कराते हैं। जिसके स्पर्श मात्र से शरीर सुलग उठते हैं, आँखें फट जाती है, नारकी मूर्च्छित होकर धरती पर लुढ़क जाते हैं। असुरकुमार जाति के देव तीसरे नरक तक आकर उन नारकियों को परस्पर भिड़ाते हैं, लड़ाते हैं।
अरे ! पापी जीव नरकों में पाप के फल में और अधर्म का सेवन करने के फल में, ऐसी घोरातिघोर | पीड़ा भोगते हैं। इसप्रकार नरकों की भयंकर वेदना से भयभीत नारकियों के मन में ऐसा विचार आता है कि - ये सब दुःखद संयोग मेरे ही पापों का फल है। एक बार इनसे छुटकारा मिलने पर मैं पुन: ऐसी भूल नहीं करूँगा। परन्तु उनके ये संकल्प, ये वायदे, ये विचार - कुत्ते की मार की तरह अत्यन्त क्षणिक होते हैं। ऐसे विचार नारकियों ने एक-दो बार नहीं अनादिकाल से अबतक अनंत बार किये होंगे; किन्तु वहाँ से निकलते ही वे नारकी पुनः वैसी ही पाप प्रवृत्तियों में पड़ जाते हैं। खेद है कि ये जीव ऐसे दुःखों से क्यों नहीं डरते ? पुन: पुन: वही भूलें क्यों दुहराते हैं। इन असह्य दुःखों से बचने का समकित ही एकमात्र उपाय है। इसीलिए कहा है कि -
__ “लाख बात की बात यह निश्चय उर लाओ।
तोरि सकल जग बंद फंद निज आतम ध्याओ।" प्रीतिंकर केवली की दिव्यध्वनि द्वारा प्रसारित हुआ कि “हे श्रीधरदेव! तुम भावी तीर्थंकर हो । यह नरक | में पड़ा हुआ शतमति मंत्री का जीव तुम्हारे उपदेश के निमित्त से वीतराग धर्म को प्राप्त करेगा।"
श्री प्रीतिंकर केवली के श्रीमुख से जैनधर्म की महिमा सुनकर श्रीधरदेव प्रसन्नचित्त हो कहने लगा - "हे प्रभो! आप महान उपकारी हैं। आप जैसे गुरुओं का संग जीवों को परम हितकर है।" इसप्रकार प्रीतिंकर || केवली के दर्शन और स्तुति कर पूर्व स्नेह वश श्रीधरदेव दूसरे नरक गया और शतमति नारकी के जीव को |
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