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सोलह कारण भावनाओं का स्वरूप एवं पहला पूर्वभव अहमिन्द्र आत्मा के स्वरूप का चिन्तन करनेवाले धीर-वीर वज्रनाभि मुनिराज ने अपने गृहस्थ जीवन के पिता वज्रसेन तीर्थंकर के निकट उन सोलह कारण भावनाओं का चिन्तवन किया। जो इसप्रकार है -
(१) दर्शनविशुद्धि भावना - निश्चय से परद्रव्यों से भिन्न अपने आत्मस्वभाव की यथार्थ प्रतीति (अनुभूति) ही दर्शनविशुद्धि भावना है। ऐसे दर्शनविशुद्धि वाले जीवों का व्यवहार तीन मूढ़ता, छह अनायतन के त्यागरूप तथा आठ शंकादि दोष और आठ मद रहित होता है।
२. विनयसम्पन्नता भावना - निश्चय से अपने आत्मा के प्रति विनम्रता एवं व्यवहार से धर्मायतनों के प्रति विनय भाव का होना है।
३. शीलव्रतेष्वनतिचार भावना - शील और व्रतों में अतिचार (दोष) न लगाना शीलव्रतेष्वनतिचार भावना है।
४. अभीक्ष्णज्ञानोपयोग भावना - निरंतर चारों अनुयोगों के अध्ययन में चित्त लगाना अभीक्ष्णज्ञानोपयोग | ण भावना है।
५. संवेग भावना - संसार, शरीर और भोगों से विरक्त होकर धर्म में अनुराग होना संवेग भावना है।
६. शक्ति:तपभावना - शक्ति के अनुसार इच्छाओं के निरोधपूर्वक अंतरंग-बहिरंग तपों की भावना होना शक्तिप्रमाणतप भावना है।
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