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। वस्तुत: मुनिराज की सहज जीवनचर्या-दिनचर्या का ही दूसरा नाम २८ मूलगुण है अर्थात् मुनिराज जब| जब सातवें गुणस्थान से छठवें गुणस्थान में आते हैं, उस समय उनकी जो शुभभावरूप सहज बाह्य प्रवृत्ति होती है, वह सहज ही पाँच महाव्रत रूप, पाँच समितिरूप, पंचेन्द्रियों के विजयरूप, षट् आवश्यक तथा स्नान, दन्तधावन आदि न करनेरूप ही होती है। अशुभभाव का तो यहाँ अस्तित्व ही नहीं होता। बस इन | २८ मूलगुणों का सहजभाव से निरतिचार पालन होना ही दिगम्बर जैन मुनि की बाह्य पहचान है। इसके बिना किसी को दिगम्बर जैन मुनि मानना मुनिधर्म का अवर्णवाद है, जो कि दर्शनमोहनीयकर्मबन्ध का कारण है।
णमो लोए सव्व साहूणं' में इन्हीं साधुओं को नमन किया गया है। जब हम ‘णमो लोए सव्व साहूणं' || बोलें तो सच्चे साधु का साकार रूप हमारे मानस पटल पर अंकित होता हुआ भासित होना चाहिए।
ऐसे मुनिधर्म के धारक आचार्य, उपाध्याय और सामान्य साधु मुख्यरूप से तो आत्मस्वरूप को ही साधते हैं तथा बाह्य में २८ मूलगुणों को अखण्डित पालते हैं समस्त आरंभ और अंतरंग-बहिरंग परिग्रह से रहित होते हैं, सदा ज्ञान-ध्यान में लवलीन रहते हैं, सांसारिक प्रपंचों से सदा दूर रहते हैं। आचार्य व उपाध्याय तो मुनिसंघ की व्यवस्था के अन्तर्गत प्रशासनिक एवं शैक्षणिक पद हैं। जो साधु अपने मूल प्रयोजन को साधते हुए इसके योग्य होते हैं, उन्हें ये पद प्राप्त होते हैं। अन्त में समाधि के हेतु आचार्य, उपाध्याय भी अपने योग्य शिष्यों को अपना पद सौंपकर, स्वयं उन पदों से निवृत्त होकर निजस्वभाव की साधना में लग जाते हैं - ऐसे साधु परमेष्ठी को ही णमो लोए सव्व साहूणं' में स्मरण व नमन किया गया है, अन्य किसी को नहीं।
इसप्रकार णमोकार मंत्र में पंचपरमेष्ठियों को नमस्कार किया गया है और उनका स्वरूप वीतरागविज्ञानमय है। पंचपरमेष्ठियों के ऐसे स्वरूप को समझकर उनका स्मरण करते हुए णमोकार मंत्र का पाठ करना ही णमोकार मंत्र का स्मरण है और इसप्रकार के स्मरण से जीव पापभावों एवं पाप कर्मों से बचा रहता है।
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