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दशों दिशाएँ ही उनके अम्बर होने से उन्हें तो दिगम्बर जैनसाधु कहते ही हैं, जो उनके भक्त या अनुयायी होते | हैं, उन्हें दिगम्बर जैन श्रावक कहते हैं। | (७) नन्हें-मुन्ने दो तीन-वर्षीय निर्विकारी बालकवत् निर्ग्रन्थ साधुओं को वस्त्र धारण करने का विकल्प नहीं आता, आवश्यकता ही अनुभव नहीं होती। जिसतरह काम-वासना से रहित बालक माँ-बहिन के समक्ष लजाता नहीं है, संकोच भी नहीं करता तथा माँ-बहिनों को भी उसे नग्न देखने से, गोद में लेने से लजा नहीं आती; ठीक उसीतरह निर्विकारी निर्ग्रन्थ मुनिराजों को भी लज्जा नहीं आती। उनके दर्शन करने में उनके भक्त नर-नारियों को भी संकोच नहीं होता।
(८) इसतरह जब उनके आत्मा में कोई कषाय या मनोविकार की ग्रन्थि ही नहीं रही तो तन पर वस्त्र की गांठ कैसे रह सकती है ? अतः वे नग्न होते हैं।
(९) लौकिक दृष्टि से भी दिगम्बर जैन मुनियों को सामाजिक सीमाओं के घेरे में नहीं घेरा जा सकता; क्योंकि वे लोकव्यवहार से ऊपर उठ चुके हैं, व्यवहारातीत हो गये हैं। वे वनवासी सिंह की भांति पूर्ण स्वतंत्र, स्वावलम्बी और अत्यन्त निर्भय होते हैं। इसकारण वे मुख्यतया वनवासी ही होते हैं। मात्र आहार हेतु नगर में आते हैं। काल दोष से वन में जीवन असुरक्षित हो चला है, शारीरिक संहनन भी कमजोर होने से इस कलिकाल में नगर के निकट के उपवनों में नसिया में या नगर के एकान्त स्थान में जल से भिन्न कमल की भांति ठहर कर साधु धर्म साधन करते हैं।
दिगम्बर जैन साधुओं की निर्ग्रन्थता निर्दोषता, निर्विकारिता, निर्पेक्षता, निर्भयता, निश्चिंतता और सहज स्वाभाविकता की परिचायक है।
दिगम्बरत्व की स्वाभाविकता, सहजता और निर्विकारिता के साथ उसकी नग्नता की अनिवार्यता से अपरिचित कतिपय महानुभावों को मुनिराज की नग्नता में जो असभ्यता व असामाजिकता दृष्टिगोचर होती है, वह उनके स्वयं की समझ और सोच का फेर है। ऐसे लोग समय-समय पर नग्नता जैसे सर्वोत्कृष्ट रूप |
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