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विशुद्धिपूर्वक प्रमाद रहित हो आत्मसाधना और जिनेन्द्र एवं जिनवाणी की आराधना की और महान सुख प्राप्त किया, उसीप्रकार हम भी यदि सुख के अभिलाषी हों और दुःखों से छूटना चाहते हों तो हमें भी प्रमादरहित होकर जिनेन्द्रकथित तत्त्वाभ्यास करना चाहिए।
| तीर्थंकर परमात्मा के जो गर्भ, जन्म, तप, केवलज्ञान और मोक्षकल्याणक होते हैं, वे पंचकल्याणक
ही आत्मा से परमात्मा बनने की प्रक्रियाएँ हैं। विश्व के समस्त दर्शनों में जैनदर्शन ही एक ऐसा दर्शन है, | जो कहता है कि प्रत्येक आत्मा स्वभाव से तो स्वयं परमात्मा है ही, यदि स्वयं को जाने, पहचाने और स्वयं में जम जाये, रम जाये तो पर्याय में भी परमात्मा बन सकता है। ___ हमारे तीर्थंकर अपने पिछले भवों में हमारे-तुम्हारे जैसे ही पामर पुरुष थे एवं अनादिकाल से चतुर्गति में परिभ्रमण करते थे। उन्होंने काललब्धि आने पर स्वयं को जाना, पहचाना, स्वयं को अनुभव किया। स्वयं में समा गये तो अन्तर्मुहूर्त में ही सर्वज्ञता प्राप्त कर परमात्मा बन गये।
भगवान ऋषभदेव ने परमात्मा बनने का कार्य भोगभूमि के आर्य के भव में किया था, जो ऋषभदेव का छठवाँ पूर्व भव था और यही कार्य भगवान महावीर ने दस भव पूर्व शेर की पर्याय में किया था। भगवान पार्श्वनाथ ने यही कार्य हाथी के भव में किया था। इन बातों से स्पष्ट है कि जैनदर्शन के अनुसार न केवल मनुष्य; बल्कि पशु भी परमात्मा बन सकते हैं।
पंचकल्याणक घटनायें भरतक्षेत्र के प्रत्येक तीर्थंकर के जीवन में घटती हैं। विदेहक्षेत्र में यद्यपि कुछ तीर्थंकरों के दो या तीन कल्याणक ही होते हैं। भगवान ऋषभदेव से भगवान महावीर तक चौबीसों तीर्थंकरों के पाँचों कल्याणक हुए हैं।
तीर्थंकरों के सभी कल्याणकों के महोत्सव इन्द्रों द्वारा ही संचालित होते हैं। अतः उसमें कहीं कोई हिंसा |
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