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तत्त्वचर्चा में ही अपना अधिकांश समय व्यतीत करते थे। शुक्ललेश्या होने से वे अपने प्राप्त वैभव से ही || पूर्ण संतुष्ट रहते थे। उन अहमिन्द्रों में छोटे-बड़े की भावना नहीं होती, वे सब समान होते हैं, उनमें परस्पर ईर्ष्या नहीं होती, द्वेष नहीं होता, निन्दा-प्रशंसा की भावना नहीं होती। वहाँ सभी अहमिन्द्र सुखमय, हर्ष सहित वर्तते हुए आत्मसाधना में लीन रहते हैं।
सर्वार्थसिद्धि में अहमिन्द्र तैंतीस हजार वर्ष बाद मानसिक दिव्य आहार लेते हैं। साढ़े सोलह माह में एकबार श्वासोच्छवास लेते हैं। यद्यपि अहमिन्द्रों में अपने अवधिज्ञान की क्षेत्र सीमा तक बाहर जाने की सामर्थ्य होती है; परन्तु राग अत्यन्त मंद होने के कारण वे अपने विमान से बाहर नहीं आते-जाते।
वज्रनाभि चक्रवर्ती के आठों भाई - विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित, बाहु, सुबाहु, महाबाहु, पीठ और महापीठ तथा श्रीमति का जीव धनदेव - ये नौ के नौ प्राणी भी अपने-अपने पुण्य प्रभाव से वज्रनाभि के साथ ही सर्वार्थसिद्धि में अहमिन्द्र हुए। वे वहाँ मोक्ष सुख जैसा निराकुल सुख का अनुभव करते थे। विषय भोगों से रहित आत्मिक सुख का अनुभव करते हुए रहते थे। ___ यद्यपि वहाँ पाँचों इन्द्रियों के अनुकूल भोगों की सुख सामग्री नहीं है तथापि वे वहाँ सबसे अधिक सुखी थे; क्योंकि सचमुच भोग सामग्री सुख की साधन नहीं; मात्र विषयजन्य पीड़ा को कम करने का तात्कालिक उपचार मात्र है। जैसे किसी को जलन हो और ठंडे पानी की पट्टी से उस जलन को कुछ देर को कम कर दिया जाता है, किसी को बालतोड़ (फोडा) हो और पीप (पस) से भारी पीड़ा हो रही हो तो फोड़े को चीरफाड़ कर या गरम सलाखों से फोड़कर पीप (पस) निकाल दिया जाय तो बैचेन रोगी को थोड़ी देर को चैन मिल जाता है। भूखे-प्यासे को थोड़ा पानी मिल जाय तो उसकी थोड़ी भूख-प्यास कम हो जाती है। कुछ देर बाद फिर वे ही समस्यायें सामने मुँहबाये खड़ी होती हैं - इसतरह भोग सामग्री सुख का साधन नहीं दुःख का क्षणिक प्रतिकार मात्र है, अस्थाई उपाय है।