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७. शक्ति:त्यागभावना - अंतरंग-बहिरंग परिग्रह के प्रति ममता कम करने की भावना भाना एवं पात्र दान देना शक्तिप्रमाणत्याग भावना है। । ८. साधुसमाधि भावना - संसार के जन्म-मरण के दुःखों के भय से उनसे विरक्त रहना तथा साधुओं के व्रत-शील आदि में विघ्न आने पर उनके दूर करने में सावधान रहना साधु समाधि भावना है।
९. वैयावृत्य भावना - व्रती पुरुषों के रोगादिक होने पर उसका उचित उपचार करना वैयावृत्य भावना | है, वैयाव्रत तप नहीं।
१०. अरहंत भक्ति भावना - अरहंत भगवान में अपनी निश्चलभक्ति भावना होना अर्हद्भक्ति भावना है। ११. आचार्य भक्ति भावना - आचार्यों के प्रति अपनी आदर की भावना आचार्यभक्ति भावना है। १२. बहुश्रुतभक्ति भावना - अधिक ज्ञानवान मुनियों के प्रति विशेष अनुराग होना बहुश्रुतभक्ति भावना है।
१३. प्रवचनभक्ति भावना - इस भावना में शास्त्रों को पढ़ना/पढ़ाना उन्हें जन-जन तक पहुँचाने की भावना होती है।
१४. आवश्यकापरिहाणि भावना - छहों आवश्यकों का पूर्णरूप से निर्दोष पालन करना आवश्यकापरिहाणि भावना है।
१५. प्रभावना भावना - तप तथा ज्ञानरूप सूर्य की किरणों द्वारा भव्य जीवरूपी कमलों को विकसित करना जिनमार्ग प्रभावना भावना है।
१६. वात्सल्य भावना - धर्मात्माओं के प्रति गोवत्स की भांति वात्सल्य रखना वात्सल्य भावना है।
इसप्रकार चिरकाल तक तीर्थंकर प्रकृति की कारणभूत भावना भाते हुए वज्रनाभि मुनि ने तीर्थंकर प्रकृति | || का बंध किया । यद्यपि उनकी मुनि अवस्था में तपश्चरण के परिणामस्वरूप अनेक ऋद्धियाँ प्रगट हो गई ॥७
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