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१५|| नहीं होती। अभिषेक का जल क्षीर समुद्र से आता है, जो पूर्ण निर्जन्तुक होता है। पूजा सामग्री दिव्य और | अहिंसक होती है। अत: उनकी नकल पर हिंसोत्पादक सामग्री से पूजा नहीं करना चाहिए।
निर्ग्रन्थ मुनि का स्वरूप निर्ग्रन्थ मुनि नग्न ही क्यों होते हैं ? इस प्रश्न का उत्तर आगम, युक्ति तथा विज्ञान और मनोविज्ञान के अनुसार इसप्रकार है -
(१) जैनदर्शन की दार्शनिक व्याख्या के अनुसार अथवा शास्त्रीय दृष्टिकोण से निर्ग्रन्थ साधु की निर्मल परिणति में (छठवें-सातवें गुणस्थान की भूमिका में) अनंतानुबंधी, अप्रत्याख्यानावरण एवं प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ कषायों का अभाव हो जाता है; इसकारण निर्ग्रन्थ मुनिराजों को इस भूमिका में वस्त्र धारण करने का भाव ही नहीं आता। अत: वे नग्न रहते हैं।
(२) सम्पूर्ण कामवासना व विषयविकार पर विजय प्राप्त हो जाने से अथवा पूर्ण निर्विकारी हो जाने से उनकी नग्नता सहज व स्वाभाविक है।
(३) यदि कोई बलात् उनके ऊपर वस्त्र डाल दे या पहना दे तो वे उसे उपसर्ग (आपतित संकट) मानकर उस उपसर्ग के दूर न होने तक भोजन-पानी एवं गमनागमन का भी त्याग कर देते हैं।
(४) लजा-गारव, शीत-उष्ण, डांस-मच्छर आदि के समस्त परिषहों को जीत लेने से निर्ग्रन्थ साधु को वस्त्र धारण करने का भाव नहीं होता, विकल्प ही नहीं आता, अत: निर्ग्रन्थ मुनि नग्न रहते हैं।
(५) निर्ग्रन्थ साधु पूर्ण स्वाधीन और स्वावलम्बी होते हैं, पराधीनता और परावलम्बन उनके स्वभाव में ही नहीं होता। अत: संयम का उपकरण पिछी, शुद्धि का उपकरण कमण्डल तथा ज्ञान का उपकरण शास्त्र के सिवा उन्हें कुछ भी स्वीकृत नहीं होता है। अत: नग्न ही रहते हैं।
(६) दिशायें ही जिनके अम्बर (वस्त्र) होते हैं, जिन्हें देह पर वस्त्र धारण करने का राग (भाव) नहीं रहता, ||