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८४ ॥ एवं चोरी की क्रियारूप परिणत नहीं होना अचौर्य महाव्रत है । इस महाव्रत के धारक मुनिराज द्वारा बिना
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दिए अन्य वस्तु का ग्रहण करना तो बहुत दूर की बात है, जल और मिट्टी भी वे बिना दिये ग्रहण नहीं करते । ४. प्रत्येक अन्तुर्मुहूर्त में होनेवाली आत्मरमणतापूर्वक स्वस्त्री व परस्त्री आदि सभी के सेवन का मनवचन-काय से सम्पूर्णत: त्याग होना ही ब्रह्मचर्य महाव्रत है।
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५. साधु परमेष्ठी के पास संयम का उपकरण, पिच्छी, शुद्धि का उपकरण कमण्डल एवं ज्ञान के उपकरण | शास्त्र को छोड़कर अन्य किसी भी प्रकार के वस्त्रादि का परिग्रह नहीं होता है । यह अपरिग्रह महाव्रत है ।
इस संदर्भ में जिनवाणी का निम्नांकित कथन द्रष्टव्य है
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" षट्काय जीव न हनन तैं, सब विधि दरव हिंसा टरी । रागादि भाव निवारतें, हिंसा न भावित अवतरी ।। जिनके न लेश मृषा न जल, मृण हू बिना दीयों गहें । अठदश सहस विध शील धर, चिद् ब्रह्म में नित रमि रहैं ।। अन्तर चतुर्दश भेद बाहिर, संग दसधा तैं टलें ।। परमाद तजि चौकर मही लखि, समिति ईर्या तैं चलें ।।
इसप्रकार साधु परमेष्ठी के ये पाँच महाव्रत रूप पाँच मूलगुण होते हैं तथा निम्नांकित पाँच समितियाँ हैं । ईर्ष्या भाषा एषणा, पुनि क्षेपण आदान । प्रतिष्ठापना युत क्रिया पाँचों समिति विधान ।।
ईर्या समिति, भाषा समिति, एषणा समिति, आदान-निक्षेपण समिति एवं प्रतिष्ठापना समिति । ये पाँचों समिति मुख्यत: अहिंसा एवं सत्य महाव्रत की साधनभूत ही हैं ।
मुनियों के (संज्वलन कषाय संबंधी) किंचित् राग होने से गमनादि क्रियायें होती हैं, उन क्रियाओं में अति आसक्तता के अभाव से प्रमादरूप प्रवृत्ति नहीं होती तथा अन्य जीवों को दुःखी करके अपना गमनादि | प्रयोजन नहीं साधते, इसलिए स्वयमेव ही दया पलती है। इसप्रकार सच्ची समिति है ।
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