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प्रश्न- ये कषायों की तीन चौकड़ी क्या हैं ?
उत्तर - 'अरे! तुम्हें यह भी पता नहीं ? सुनो! प्रथम चौकड़ी अनन्तानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ । | द्वितीय चौकड़ी - अप्रत्याख्यानावरण क्रोध - मान-माया और लोभ तथा तृतीय चौकड़ी - प्रत्याख्यानावरण - क्रोध- मान-माया और लोभ । एक चौथी चौकड़ी भी है - उसका नाम है संज्वलन क्रोध-मान-माया पु और लोभ । इस चौथी चौकड़ी के क्रोधादि का मंद उदय तो क्रमश: सातवें, आठवें, नववें गुणस्थान तक | रहता है तथा संज्वलन का सूक्ष्म लोभ तो दसवें गुणस्थान तक रहता है ।
प्रश्न- ये गुणस्थान क्या हैं और कितने हैं ?
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उत्तर - • मोह और योग के निमित्त से होनेवाले आत्मा के परिणामों को गुणस्थान कहते हैं और ये १४ होते हैं। जो इसप्रकार हैं - १. मिथ्यात्व २. सासादन ३. मिश्र ४. अविरत सम्यक्त्व ५. देशविरत ६. प्रमत्तसंयत ७. अप्रमत्तसंयत ८. अपूर्वकरण ९. अनिवृत्तिकरण १०. सूक्ष्मसाम्पराय ११. उपशान्तकषाय १२. क्षीणकषाय १३. सयोगकेवली जिन १४. अयोगकेवली जिन ।
यह तो गुणस्थानों की संक्षिप्त जानकारी हुई। अब साधु परमेष्ठी का स्वरूप एवं २८ मूलगुणों का स्वरूप जो शेष है, उसे कृपया थोड़ा विस्तार से बताने की कृपा करें ।
हाँ सुनो! सच्चे साधु परमेष्ठी के स्वरूप का निरूपण करते हुए आचार्य समन्तभद्र लिखते हैं - "विषयाशावशातीतो निरारम्भोऽपरिग्रहः । ज्ञानध्यानतपोरक्तस्तपस्वी स प्रशस्यते ।।
जिनके विषयों की आशा समूल समाप्त हो गई है, जो हिंसोत्पादक आरंभ और परिग्रह से सर्वथा दूर रहते हैं तथा ज्ञान-ध्यान व तप में लीन रहते हुए निरन्तर निज स्वभाव को साधते हैं, वे साधु परमेष्ठी हैं।"
विषयों की आशा नहीं जिनके, साम्यभाव धन रखते हैं । निज-पर के हित साधन में जो, निश-दिन तत्पर रहते हैं ।।
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