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इत्यादिक सम्पत्ति बहुतेरी, जीरण तृण सम त्यागी। नीतिविचार नियोगी सुत को, राज्य दियो बड़भागी।।१५।। होय निशल्य अनेक नृपति संग, भूषण वसन उतारे । श्री गुरु चरन धरी जिनमुद्रा, पंच महाव्रत धारे ।। धनियह समझ सुबुद्धि जगोत्तम, धनि यह धीरजधारी । ऐसी सम्पत्ति छोड़ बसेवन, तिनपद धोक हमारी ।।१६।।
परिग्रह पोट उतार सब, लीनों चारित पन्थ ।
निज स्वभाव में थिर भये, वज्रनाभि निरग्रन्थ ।। इसप्रकार संसार, शरीर और संयोगों की असारता एवं क्षणभंगुरता का विचार करते हुए वैराग्य भावना भाते हुए चक्रवर्ती वज्रनाभि ने परिग्रह की पोटली के बोझ को माथे से उतार कर चारित्र के पन्थ पर चलकर निज स्वभाव की साधना हेतु अपने पिता तीर्थंकर वज्रसेन के समीप जाकर जिनदीक्षा ले ली। वज्रनाभि के साथ एक हजार पुत्रों, आठ भाइयों एवं धनदेव ने भी जिनदीक्षा धारण की।
सोलह हजार अन्य राजाओं ने भी चक्रवर्ती वज्रनाभि के वैराग्य से प्रेरणा प्राप्त कर जिनदीक्षा ले ली। यह उचित ही है; क्योंकि शीत से पीड़ित ऐसा कौन व्यक्ति है, जो धूप का सेवन नहीं करेगा। सभी ने पाँच महाव्रत, पाँच समितियाँ, पाँच इन्द्रिय विजय, छह आवश्यक और शेष सात गुणों को धारण कर २८ मूलगुणों का निरतिचार पालन करने की प्रतिज्ञा की।
तीर्थंकर वज्रसेन की देशना - दीक्षित मुनिराजों द्वारा २८ मूलगुणों का स्वरूप विस्तार से जानने की जिज्ञासा प्रगट करने पर वज्रसेन तीर्थंकर की दिव्यध्वनि में मुनियों के मूलगुणों का निम्नांकित स्वरूप आया - "हे भव्य! ये विकल्परूप २८ मूलगुण शुभभावरूप हैं, इनकी यथार्थ पालना छठवें गुणस्थान में क्रोधादि कषायों की तीन चौकड़ी के अभाव की भूमिका में होती है।"
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