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स्वार्थ त्याग की कठिन तपस्या, बिना खेद जो करते हैं।
ऐसे ज्ञानी साधु जगत के, दु:ख समूह को हरते हैं ।। साधु परमेष्ठी के २८ मूलगुण होते हैं, जो इसप्रकार हैं :"पंच महाव्रत, पंच समिति, पंच इन्द्रियनि रोध । षट् आवश्यक सप्त गुण, अष्टविंशति बोध ।।”
पाँच महाव्रत, पाँच समिति, पाँच इन्द्रियविजय, छह आवश्यक एवं सात शेष गुण - ये सब मिलाकर साधु परमेष्ठी के अट्ठाईस मूलगुण होते हैं। साधुओं के द्वारा इनका निरतिचार रूप से पालन होता है। पाँच महाव्रत - हिंसा अनृत तस्करी, अब्रह्म परिग्रह पाप । मन-वच-तन से त्याग करि, पंच महाव्रत थाप ।
अनन्तानुबंधी, अप्रत्याख्यानावरण एवं प्रत्याख्यानावरण क्रोध-मान-माया-लोभ कषायों के अभावपूर्वक मन-वचन-काय से हिंसादि पाँचों पापों का सर्वथा त्याग पंचमहाव्रत है।
१. मिथ्यात्व एवं अनंतानुबंधी, अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण क्रोध-मान-माया-लोभरूप कषायों के अभाव से उत्पन्न वीतरागपरिणति महाव्रती मुनिराजों की भाव अहिंसा है। एवं तत्पूर्वक त्रस-स्थावर जीवों की विराधना नहीं होना द्रव्य अहिंसा है। यह दोनों प्रकार की अहिंसा ही साधु परमेष्ठी का अहिंसा महाव्रत नामक प्रथम मूलगुण है।
इसीप्रकार का भाव सत्यादि महाव्रतों के संबंध में समझना चाहिए। जो इसप्रकार है -
२. मिथ्यात्व एवं अनंतानुबंधी आदि तीन प्रकार की चारों कषायों के अभावपूर्वक सत्य बोलने का | परिणाम एवं सत्य बोलना तथा स्थूल व सूक्ष्म किसी भी प्रकार झूठ नहीं बोलना सत्य महाव्रत है।
३. उपर्युक्त मिथ्यात्व व कषायों के अभावपूर्वक स्थूल व सूक्ष्म किसी भी प्रकार की चोरी का परिणाम ||
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