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६४ || नेवला, बन्दर और शूकर- ये चारों प्राणी भोगभूमि की आयु पूर्ण करके उसी ईशान स्वर्ग में महान ऋद्धि
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धारक देव हुए। ये चारों जीव अगले भवों में ऋषभदेव के साथ ही रहेंगे और उनके पुत्र होकर मोक्ष प्राप्त करेंगे, बंदर का जीव उनका पुत्र होकर गणधर होगा ।
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महान ऋद्धिधारी श्रीधर देव अपने विमान में जिनपूजा, तीर्थंकरों के कल्याणक आदि अनेक उत्सव मनाता हुआ प्रसन्नचित्त से धर्मसाधना करता था ।
एक दिन श्रीधर देव को अवधिज्ञान से ज्ञात हुआ कि "हमारे गुरु प्रीतिंकर मुनिराज इससमय विदेह क्षेत्र में विराजमान हैं। अहो ! भोगभूमि में आकर हमें सम्यक्त्व प्राप्त करानेवाले प्रीतिंकर मुनिराज हमारे महान उपकारी हैं, उन्हें आज केवलज्ञान प्राप्त हो गया है। वे सर्वज्ञ हो गये हैं । धन्य हुआ उनका मानवजीवन ! हम भी आत्मसाधना पूर्ण करके उन जैसे परमात्मा बन सकते हैं; परन्तु हमारा वह दिन कब आयेगा, हम | केवलज्ञान कब प्राप्त करेंगे?" इसप्रकार श्रीधर देव ने अत्यन्त भक्तिपूर्वक पूजा सामग्री लेकर स्वर्ग से आकर प्रीतिंकर केवली के चरणों में नमन किया और उनसे पूछा - "महाबल के भव में मेरे चार मंत्री थे उनमें | एक तो आप स्वयंबुद्ध मंत्री थे, जो सम्यग्दृष्टि थे और आपने मुझे जैनधर्म का तत्त्वज्ञान कराया था । अन्य तीनों मंत्री एकान्ती थे। वे इस समय कहाँ हैं?"
सर्वज्ञदेव प्रीतिंकर की दिव्यध्वनि में आया - "हे भव्य ! वे तीनों कुमरण कर दुर्गति को प्राप्त हुए हैं। | उनमें महामति और सभिन्नमति तो मिथ्यामान्यता के पोषण करने के कारण निगोद में हैं, जहाँ वे अतिप्रगाढ़ | अंधकार से घिरे हैं और उबलते हुए पानी में उठते बुलबुलों की भांति अनेक बार जन्म-मरण कर रहे हैं। हे भव्य! शतमति मंत्री का जीव धर्म की तीव्र विराधना के कारण दूसरे नरक में दुःख भोग रहा है।" यह निर्विवादरूप से सत्य है कि धर्म से सुख की प्राप्ति होती है और अधर्म सेवन से दुःख मिलता है; इसलिए बुद्धिमान जीव पाप बुद्धि और मिथ्यामान्यताओं को छोड़कर वीतरागधर्म में तत्पर होते हैं । पाप का फल अत्यन्त कटु होता है। नरक में पड़े जीव को एक पल की भी शान्ति नहीं मिलती ।
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