________________
BREP
योग्य समय पर महाराजा वज्रसेन ने वज्रनाभि का राज तिलक कर चक्रवर्ती होने का आशीर्वाद दिया | और स्वयं संसार से विरक्त हो गये । लौकान्तिक देवों ने उनके वैराग्य की अनुमोदना की। राजा वज्रसेन के साथ एक हजार अन्य राजाओं ने भी जिनदीक्षा ग्रहण की।
एक ओर राजा वज्रनाभि कुशलतापूर्वक राज्य शासन को संभाल रहे थे और दूसरी ओर मुनिराज वज्रसेन | तपो लक्ष्मी की साधना कर रहे थे। यहाँ कुछ ही काल के बाद वज्रनाभि के शस्त्रागार में चक्ररत्न प्रगट हुआ और दूसरी ओर शुक्ल ध्यान रूप ध्यान चक्र के द्वारा मुनिराज वज्रसेन को धर्मचक्र की प्राप्ति हुई। पुत्र चक्रवर्ती बना तो पिता धर्मचक्र द्वारा केवलज्ञान प्रगट कर तीर्थंकर केवली हो गये। पुत्र ने पृथ्वी के छह खण्ड जीते और पिता ने अखण्ड आत्मा का आश्रय लेकर तीनों लोकों को जीत लिया । श्रीमति और केशव का जीव धनदेव भी उसी चक्रवर्ती की चेतननिधियों एवं चेतनरत्नों में गृहपति नामक रत्न हुआ।
तीर्थंकर वज्रसेन दिव्यध्वनि द्वारा तत्त्वोपदेश देकर जीवों का हित करने लगे और उनके पुत्र भावी तीर्थंकर वज्रनाभि चक्रवती होकर प्रजा का पालन करने लगे। ऐसा लगता था कि मानो पिता-पुत्र दोनों लोकहित में परस्पर स्पर्धा कर रहे हों। इसप्रकार विशाल अभ्युदय के धारक वज्रनाभि चक्रवर्ती ने चिरकाल तक पृथ्वी का उपभोग करते हुए एक दिन अपने पिता वज्रसेन तीर्थंकर की देशना से अत्यन्त दुर्लभ रत्नत्रय का स्वरूप जाना।
इस देशना को सुनकर वज्रनाभि को ऐसा लगा कि “जो चतुर पुरुष अमृत तुल्य वचनों को हृदय में धारण कर रत्नत्रय रसायन का सेवन करेगा, उसी का जीवन धन्य है, सार्थक है। ये भोग आदि तो इस जीव ने सचमुच अनंतबार पाये, किन्तु उनसे किंचित् भी, संतोष नहीं मिला। ये सब तो आकुलता की खाने ही हैं।" अत: विचार करने लगा कि - "जिसतरह किसान बीज बचा कर ही अन्नादि वस्तुओं का उपभोग करता है, उसीतरह हमें भी धर्माचरण करते हुए ही राजसुख का उपभोग करना चाहिए।" बस फिर क्या था, वज्रनाभि ने वैसा ही किया।
चक्रवर्ती वज्रनाभि अपने चक्रवर्तित्व के उत्तरदायित्व को निभाते हए तथा मानव जीवन को सार्थक करने ॥६
10 FEPS 64 FRE