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| उत्तम विभूति प्राप्त की थी। इसलिए भव्य जीवों को जिनेन्द्र द्वारा कहे गये धर्म में अपनी बुद्धि लगाना चाहिए और भक्तिपूर्वक उसका आराधन करना चाहिए ।
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धन्य है उस जीव को, जिसने ऐसी विभूति पाकर भी अन्तर में उन सबसे भिन्न अपने चैतन्य की विभूति की प्रतीति की थी । अन्तर के चैतन्य-वैभव के समक्ष उस समस्त इन्द्र के वैभव को वे तुच्छ समझते थे । | उस वैभव के बीच रहकर भी वे अपने चैतन्य - वैभव को एकक्षण को भी भूलते नहीं थे । आत्मज्ञान की अखण्ड धारा को प्रवाहित रखकर स्वर्ग के दिव्य भोगों का सुखद अनुभव करते थे। कभी जिनेन्द्रदेव की महापूजा करते। कभी मध्यलोक में आकर तीर्थंकर देव की वन्दना करते थे ।
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जब ऋषभदेव भगवान के जीव अच्युतेन्द्र की आयु के मात्र छह माह शेष रह गये, तब से उनकी अर्द्धलोक छोड़कर मध्यलोक में आने की तैयारी होने लगी, किन्तु अच्युतेन्द्र मृत्युभय से किंचित् भी विचलित नहीं हुए । ज्ञानी जीव ऐसे ही धैर्यशाली होते हैं, उन्हें मृत्यु जैसा भय भी विचलित नहीं कर पाता । अच्युतेन्द्र ने अरहंतदेव की पूजा प्रारंभ की, पंचपरमेष्ठी के गुणस्मरण में चित्त लगाया और आयु की अवधि पूर्ण होने पर मध्यलोक में बज्रनाभि के रूप में उत्पन्न हुए ।
आचार्य भव्यों को सम्बोधते हुए कहते हैं कि “स्वर्ग के इन्द्रदेव यद्यपि सब प्रकार से सुख सम्पन्न, महा धैर्यवान, बड़ी-बड़ी ऋद्धियों के धारक और वैभव से सम्पन्न होते हैं, तथापि उन्हें भी वह छोड़ना ही पड़ता है । इसलिए संसार और संयोगों की ऐसी क्षणभंगुरता जानकर पुनरागम रहित मुक्ति की साधना में ही आत्मार्थियों को अपना उपयोग लगाना चाहिए।"
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