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| अन्तर्मुख शुद्ध परिणतिपूर्वक कषाय मन्दता से अष्ट मूलगुण धारण एवं सप्त व्यसनों के त्यागरूप भावों
का सहज होना ही दर्शन प्रतिमा है। मद्य मांस मधु एवं पाँच उदम्बर फलों का त्याग अथवा पाँच पापों का स्थूल त्याग अष्टमूलगुण है। प्रथम प्रतिमा में श्रावक इन अष्ट मूलगुणों का निर्दोषरूप से आचरण करता है।
जुआ खेलना, मांस खाना, मदिरापान करना, वैश्या गमन करना, शिकार खेलना, चोरी करना और परस्त्री रमणता - ये सात व्यसन हैं। प्रथम प्रतिमा में इनका प्रतिज्ञापूर्वक त्याग होता है। __ आत्मा की पंचम गुणस्थान योग्य शुद्ध परिणति निश्चय दर्शन प्रतिमा है। इसके साथ बिना हठ के सहज व्यसनादि का त्याग होना व्यवहार दर्शन प्रतिमा है। वर्तमान प्रतिमा में अभ्यासरूप से अगली प्रतिमा का भी आंशिक पालन होता है। (२) व्रत प्रतिमा -
पाँच अनुव्रत आदरै, तीन गुण व्रत पाल।
शिक्षाव्रत चारों धरै, यह व्रत प्रतिमा चाल ।। पहली प्रतिमा में प्राप्त वीतरागता एवं शुद्धि को दूसरी प्रतिमाधारी श्रावक बढ़ाता रहता है। इस दूसरी प्रतिमा के योग्य शुद्ध परिणति निश्चय प्रतिमा है तथा बारह व्रतों का प्रतिज्ञापूर्वक निरतिचार (निर्दोष) पालन करना व्यवहार व्रत प्रतिमा है। अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और परिग्रह का परिमाण करना अणुव्रत है तथा दिग्वत, देशव्रत और अनर्थदण्डव्रत - इन तीन की मर्यादा लेना गुणव्रत है और सामायिक, प्रोषधोपवास, भोगोपभोग परिमाण व्रत और अतिथि संविभाग व्रत - ये चार शिक्षाव्रत हैं। प्रतिज्ञापूर्वक इन १२ व्रतों का पालन करना दूसरी प्रतिमा है। (३) सामायिक प्रतिमा - द्रव्य भावगत संजुगत, हिये प्रतिज्ञा टेक।
तज ममता समता गहे, अन्तर्मुहूर्त एक ।। जो अरि-मित्र समान विचार, आरत-रौद्र कुध्यान निवारै। संयम सहित भावना भावै, सो सामायिक वंत कहावै।।
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