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और चक्रवर्ती के पाँच हजार पुत्रों ने भी दीक्षा ग्रहण कर ली। वे सब मुनिवर संवेग-निर्वेद रूप परिणामों द्वारा मोक्षमार्ग की साधना करते थे।
प्रश्न - इन संवेग-निर्वेद शब्दों का क्या अर्थ है और इन शब्दों का यहाँ किन परिणामों के अर्थ में प्रयोग हुआ है ?
उत्तर - रत्नत्रय धर्म में तथा उसके फल में प्राप्त अतीन्द्रिय आनन्द की प्राप्ति में उत्कृष्ट प्रतीति करके उत्साहपूर्वक रत्नत्रय की साधना-आराधना करना संवेग है तथा संसार, शरीर और भोग के प्रति अतिशय विरक्त परिणाम निर्वेद है।
ऐसे संवेग-निर्वेद परिणामों से वे मुनि मुक्ति की साधना करने लगे। भगवान ऋषभदेव का जीव जो चतुर्थ पूर्वभव में सुविध राजा हुआ, उसके पूर्वभव के साथी तो इसप्रकार मुनि हो गये, परन्तु राजा सुविध अपने पुत्र प्रेम के कारण दीक्षा धारण नहीं कर सका था; क्योंकि केशव के प्रति उसे अतिस्नेह था, इसकारण वह मुनिपने की भावना रखकर श्रावक के उत्कृष्ट धर्म का पालन करने लगा; और उसने देशव्रत ले लिए।
गृहस्थधर्म में सम्यक्त्व के अतिरिक्त देशव्रत के रूप में ग्यारह प्रतिमायें होती हैं अर्थात् देशव्रत पालन करने के ग्यारह स्थान होते हैं। प्रतिमा का स्वरूप इसप्रकार है -
संयम अंश जग्यौ जहाँ, भोग अरुचि परिणाम ।
उदय प्रतिज्ञा को भयो, प्रतिमा ताको नाम ।। प्रतिमा के स्वरूप में निम्नांकित तीन बातें आवश्यक हैं - १. देशसंयम होना, २. भोगोपभोगों से अरुचि होना और ३. प्रतिज्ञापूर्वक संयम ग्रहण करना। ये ग्यारह प्रतिमायें इसप्रकार हैं - (१) दर्शन प्रतिमा -
आठ मूलगुण संग्रहे, कुव्यसन क्रिया न कोई। दर्शन गुण निर्मल करै, दर्शन प्रतिमा सोइ ।।
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