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६०|| विनयपूर्वक उन्हें उच्चासन पर विराजमान कर पूछा - "हे प्रभो ! आप हमारे परम हितैषी हैं। आपको देखते
ही मेरे हृदय में सौहार्द भाव उमड़ रहा है। मुझे ऐसा लगता है कि आप हमारे परिचित हैं। प्रभो ! इसका क्या कारण है ?" | मुनिराज ने उस आर्य दम्पत्ति की इच्छापूर्ण करते हुए कहा - "हे आर्य! मैं उस स्वयंबुद्ध मंत्री का जीव |हूँ, जिसके द्वारा तुमने महाबल के भव में वीतराग धर्म का ज्ञान प्राप्त किया था। उस भव में तुम्हारी मृत्यु
के बाद मैंने जिनदीक्षा धारण कर ली थी और सन्यासपूर्वक देह का त्याग करके सौधर्म स्वर्ग में मणिचुल नामक देव हुआ। तत्पश्चात् विदेह क्षेत्र की पुण्डरीकिणी नगरी में प्रीतिंकर नामक राजपुत्र हुआ और यह दूसरे मुनि प्रीतिदेव मेरे लघु भ्राता हैं। हम दोनों ने स्वयंप्रभ जिनेन्द्र के समक्ष दीक्षा लेकर तपोबल से अवधिज्ञान व आकाशगामिनी चारणऋद्धि प्राप्त की है। __ हे आर्य! हम दोनों ने अवधिज्ञान से यह जाना कि तुम यहाँ भोगभूमि में उत्पन्न हुए हो, पूर्वभव में तुम हमारे परम मित्र थे। इसलिए तुम्हें प्रतिबोधन हेतु हम यहाँ आये हैं। हे भव्य जीवों! तुम मोक्षमहल की प्रथम सीढ़ी सम्यग्दर्शन के बिना मात्र पात्रदान के प्रभाव से ही यहाँ भोगभूमि में उत्पन्न हुए हो यद्यपि महाबल के भव में तुमने हमसे तत्त्वज्ञान प्राप्त किया था; परन्तु उससमय भोगों की आकांक्षा के वश तुम दर्शनविशुद्धि प्राप्त नहीं कर पाये। अब तुम्हें सर्वश्रेष्ठ, स्वर्ग-मोक्ष के द्वाररूप सम्यग्दर्शन प्रगट कराने की मंगलमय भावना से ही हम यहाँ आये हैं। इसलिए हे आर्य! तुम वस्तुस्वरूप को यथार्थ समझ कर परमार्थ देव-शास्त्र-गुरु की
और साततत्त्व की यथार्थ श्रद्धा करके सम्यग्दर्शन प्राप्त करो। अब तुम्हारे सम्यग्दर्शन पर्याय प्रगट होने का स्वकाल आ चुका है।" मुनिराज के श्रीमुख से परम अनुग्रह भरे वचन सुनकर आर्य दम्पत्ति अत्यन्त प्रसन्न हुए।
मुनिराज ने आगे कहा - "देशनालब्धि आदि बहिरंग कारण और करणलब्धि रूप अंतरंगकारण द्वारा भव्य जीव दर्शनविशुद्धि प्राप्त करते हैं। सर्वज्ञकथित छहद्रव्य, साततत्त्व और लोक की अनादिनिधन स्वतंत्रस्वसंचालित विश्वव्यवस्था समझना और इन पर श्रद्धान करना ही सम्यग्दर्शन है। नि:शंकित, नि:कांक्षित आदि आठ अंगों द्वारा सम्यग्दर्शन सुशोभित होता है। वे आठ अंग इसप्रकार हैं -