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ऋषभदेव का छटवाँ एवं पाँचवाँ पूर्वभव (आर्य एवं श्रीधरदेव) मेरु पर्वत की उत्तर दिशा में उत्तर कुरु भोगभूमि है, जो अपनी शोभा से स्वर्ग की शोभा को भी फीका करती है। वहाँ कल्पवृक्षों से ही सब भोग सामग्री उपलब्ध होती है। उत्तम पात्रों को दिए दान के फल में वह भोगभूमि उपलब्ध होती है। वहाँ के जीव चक्रवर्ती से भी अधिक सुखी हैं। | वज्रजंघ और श्रीमती आयु पूर्ण कर ऋषभदेव के छठवें पूर्वभव के रूप में उत्तम पात्रदान के प्रभाव से ऐसी सुखद पुण्यभूमि में आर्य-आर्या हुए। नेवला, सिंह, बंदर और शूकर के जीव भी आहारदान की अनुमोदना के प्रभाव से वहीं दिव्य शरीर पाकर भद्र परिणामी मनुष्य हुए। मतिवर मंत्री, आनंद पुरोहित, धनमित्र सेठ और अकम्पन सेनापति भी वज्रजंघ और श्रीमति की दुःखद मृत्यु से संसार से विरक्त होकर मुनि हो गये और रत्नत्रय की आराधना करके देवलोक में प्रथम ग्रैवेयक में अहमिन्द्र हुए। ___भोगभूमि में आर्य दम्पत्ति के रूप में उत्पन्न हुए वज्रजंघ और श्रीमती के जीव एक बार कल्पवृक्षों की शोभा निहार रहे थे। इसी बीच आकाश मार्ग से जाते हुए सूर्यप्रभदेव का विमान देखकर उन दोनों को जातिस्मरण ज्ञान हो गया। उसके द्वारा वे अपने पूर्वभव जानकर संसार के क्षणिक, नाशवान और दुःखद स्वरूप का विचार करने लगे। उसीसमय वज्रजंघ के जीव आर्य ने आकाशमार्ग से आते हुए दो मुनियों को देखा। वे ऋद्धिधारी मुनिराज भी उन आर्य दम्पत्ति पर अनुग्रह करके आकाश से नीचे उतरे। उन्हें सन्मुख आते देख आर्य (वज्रजंघ) तुरंत ही खड़े होकर विनयपूर्वक उनका सत्कार करने लगा। ___ यह स्वाभाविक ही है कि पूर्वजन्म के संस्कार जीवों को हितकार्य में प्रेरित करते हैं। दोनों मुनिवरों के समक्ष खड़े उन आर्य दम्पत्ति ने उन मुनिवरों के चरणों में भक्तिपूर्वक अर्घ्य चढ़ाकर उन्हें नमस्कार किया और ॥४॥