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॥ १. जिनेन्द्रकथित उपर्युक्त वस्तुस्वरूप समझकर उसमें शंका न करना निःशंकित अंग है । निःशंकित अंग श || का धारक व्यक्ति पूर्ण निर्भय होता है, कहा भी है - 'नि:शंक: निभ्भया होंती'।
२. सम्यग्दृष्टि जीव पापों के बीजरूप भोगों की आकांक्षा नहीं करते; धर्माराधना करके उसके फल में भोगों की चाह नहीं करते । वही नि:कांक्षित अंग है।
३. 'वस्तु कोई भली-बुरी नहीं होती', अत: निर्विचिकित्सा अंगधारी ज्ञानी किसी भी पर-पदार्थ में ग्लानि नहीं करते। पाप के उदय में दुःखदायक संयोगों में उद्वेग रूप न होना तथा विष्टा आदि में ग्लानि न | करना समकिती का निर्विचिकित्सा अंग है।
४. सम्यग्दृष्टि ज्ञानी की दृष्टि अमूढ़ होती है, विवेकपूर्ण होती है, उनके देव-शास्त्र-गुरु के प्रति भी मूढ़ता नहीं होती। वे धर्माभास, देवताभास में देवबुद्धि व धर्मबुद्धि नहीं करते । यही समकिती का अमूढदृष्टि अंग है।
५. उपगूहन का दूसरा नाम उपवृहण भी है, जिसका अर्थ है धर्म को बढ़ाना और उपगूहन का अर्थ है दूसरों के दोषों को सार्वजनिक रूप से प्रगट न करना। समकिती इन दोनों बातों का ध्यान रखता है।
६. स्थितिकरण अंग के धारक धर्म से भ्रष्ट होते जीवों को पुनः धर्म में स्थापित करते हैं। काम-क्रोध एवं लोभादिक के वश हो धर्म से विचलित होते स्वयं को या दूसरों को विचलित नहीं होने देते। उनका धर्म में स्थितिकरण करना ही इस अंग की विशेषता है।
७. गोवत्स जैसी नि:स्वार्थ प्रीति का नाम वात्सल्य अंग है। मोक्षसुख के कारणभूत रत्नत्रय में तथा हिंसा रहित जिनप्रणीत धर्म में तथा साधर्मियों में ज्ञानी सदा वात्सल्यभाव रखते हैं।
८. अपने आत्मा का तेज तो रत्नत्रय के प्रताप से प्रगट होता ही है और जिनधर्म की प्रभावना दया - दान-तप-जिनपूजा आदि द्वारा करना भी इस अंग की विशेषता है जो ज्ञानी के जीवन में देखी जाती है। कहा भी है - "आत्मा प्रभावनीय, रत्नत्रय तेजसा शततमेव; दान तपो जिनपूजा, विद्यातिशयेश्च जिनधर्मः। यही प्रभावना अंग है।
ऐसे आठ अंगों से सुशोभित सम्यग्दर्शन को प्राप्त करो। हे आर्य! यह सम्यग्दर्शन ही सर्व सुखों का साधन ||
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