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जो लोग परलोक के लिए तपश्चरण आदि करते हैं, वे व्यर्थ ही क्लेश प्राप्त करते हैं। जबकि परलोक एक मृगतृष्णा है। इससे अधिक कुछ भी नहीं है।"
इसप्रकार खोटे दृष्टान्त और मिथ्या हेतुओं से सारहीन सिद्धान्त का प्रतिपादन कर जब शतमति चुप हो गया तब तत्त्वज्ञानी स्वयंबुद्ध मंत्री बोले - "हे शून्यवादी ! स्वतंत्र उत्पाद-व्यय-ध्रुवस्वरूप कोई आत्मा नहीं है - यह आप लोग मिथ्या संभाषण कर रहे हो; क्योंकि तुम्हारे द्वारा मान्य पृथ्वी-जल-अग्नि एवं वायुरूप | भूत-चतुष्टय के अतिरिक्त ज्ञान-दर्शनरूप चैतन्य की भी प्रतीति होती है। वह चैतन्य शरीररूप नहीं है और न शरीर चैतन्यरूप है; क्योंकि दोनों का परस्पर विरुद्ध स्वभाव है। चैतन्य चित्स्वरूप है, ज्ञान-दर्शनरूप है
और शरीर अचित्स्वरूप है -जड़ है। शरीर और चैतन्य आत्मा - दोनों मिलकर एक नहीं हो सकते; क्योंकि दोनों में परस्पर विरोधी गुणों का प्रयोग पाया जाता है। चैतन्य का स्वरूप म्यान में रखी तलवार के समान अन्तरंगरूप है और शरीर ऊपर के कवर के रूप में म्यान के समान बहिरंगरूप होता है। __ हे भूत वादिन ! आपका मत है कि शरीर के प्रत्येक अंगोपांग की रचना पृथक्-पृथक् चतुष्टय से होती है; इसके अनुसार तो प्रत्येक अंगोपांग में पृथक्-पृथक् चैतन्य होना चाहिए; क्योंकि आपके मत में चैतन्यभूत चतुष्टय का ही कार्य है; परन्तु देखा इससे विपरीत जाता है। शरीर के सब अंगोपांगों में एक ही चैतन्य का प्रतिभास होता है। उसका कारण यह है कि जब शरीर के किसी एक अंग में कांटा चुभ जाता है तो सारे शरीर में दुःख का अनुभव होता है। यदि सब अंगोपांगों में व्याप्त होकर रहनेवाला आत्मा (चैतन्य) भूत चतुष्टय का कार्य होता तो वह भी प्रत्येक अंगों में पृथक्-पृथक् होता। जबकि ऐसा देखा नहीं जाता।
इसके सिवाय एक बात यह भी है कि मूर्तिमान शरीर से अमूर्त चैतन्य की उत्पत्ति कैसे हो सकती है? क्योंकि मूर्त और अमूर्त में कारण-कार्यपना नहीं होता। इससे सिद्ध है कि जीव कोई भिन्न पदार्थ है और ज्ञान उसका लक्षण है। जैसे इस वर्तमान शरीर में जीव का अस्तित्व है। उसीप्रकार पिछले और आगे के शरीरों में भी आत्मा का अस्तित्व सिद्ध होता है; क्योंकि जीवों का वर्तमान शरीर पिछले शरीर के बिना नहीं हो सकता। उसका कारण यह है कि नवजात शिशु के वर्तमान शरीर में स्थित आत्मा में जो माता के
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