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॥ यहाँ प्रश्न हो सकता है कि 'विज्ञान' की सन्तान प्रति सन्तान मान लेने से पदार्थ का स्मरण तो सिद्ध श || हो जायेगा; परन्तु प्रत्यभिज्ञान सिद्ध नहीं हो सकेगा; क्योंकि प्रत्यभिज्ञान की सिद्धि के लिए पदार्थ को अनेक ला || क्षण स्थायी मानना पड़ेगा। जो कि विज्ञानाद्वैतवादी ने माना नहीं है ?
पूर्व क्षण में अनुभूत पदार्थ का द्वितीयादि अगले क्षणों में प्रत्यक्ष होने पर जो स्मरण प्रत्यक्ष का जोड़ | रूप ज्ञान होता है उसे प्रत्यभिज्ञान कहते हैं, यह मतिज्ञान का ही प्रभेद है।' ___ उक्त प्रश्न का समाधान करते हुए विज्ञानाद्वैतवादी सभिन्नमति मंत्री कहता है कि - "क्षणभंगुर पदार्थ में जो प्रत्यभिज्ञान आदि होता है, वह वास्तविक नहीं है। उसके अनुसार संसारी जीव स्कन्ध दुःख माने जाते हैं। वे स्कन्ध विज्ञान, वेदना, संज्ञा, संस्कार और रूप के भेद से पाँच होते हैं। पाँचों इन्द्रियाँ, शब्द आदि उन पाँचों इन्द्रियों के विषय तथा शरीर एवं मन - ये १२ आयतन हैं।"
विज्ञानद्वैतवादी के अनुसार जिस आत्मीय भाव से संसार में रुलानेवाले रागादि उत्पन्न होते हैं, उसे समुदयसत्य कहते हैं तथा इन समुदय सत्यरूप स्कन्धों के नाश को मोक्ष या निरोध कहते हैं। इसलिए विज्ञान की संतति से अतिरिक्त जीव नाम का कोई पदार्थ नहीं है जो कि परलोक में पुण्य-पाप के फल भोगनेवाला है। अतएव परलोक संबंधी दुःख दूर करने के लिए प्रयत्न करनेवाले पुरुषों का परलोक भय झूठा है, कल्पनामात्र है। इसप्रकार यह विज्ञानाद्वैतवादी भी आत्मा के त्रैकालिक अस्तित्व से इन्कार करता है; अत: यह चार्वाक की भांति ही नास्तिक है।
तदनन्तर 'शून्य' मत का अनुयायी शतमति नाम का चौथा मंत्री बोला :- “यह समस्त जगत शून्यरूप है। इसमें नर, पशु-पक्षी, घट-पट पदार्थों का जो प्रतिभास होता है, वह सब स्वप्न जैसा मिथ्या है। भ्रान्ति से ही ऐसा प्रतिभास होता है। जैसा कि स्वप्न में देखी हुई वस्तुएँ स्वप्न भंग होते ही शून्य हो जाती है; ऐसा ही सारे जगत का स्वरूप है। इसप्रकार जब सारा जगत मिथ्या है तो जीवादि तत्त्वों को त्रैकालिक माननेवालों का सिद्धान्त सच कैसे हो सकता है ? और उसके अभाव में परलोक की सत्ता भी कैसे सिद्ध होगी ? अतः ॥२
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