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के अनुकूल सबप्रकार की सुविधाओं से समृद्ध और सुसज्जित था। । यद्यपि माता-पिता और गुरुजनों के बिछुड़ने से श्रीमती यदा-कदा खिन्न हो जाती थी; परन्तु वज्रजंघ
का स्नेह और सास-श्वसुर के आशीर्वाद और लाड़-प्यार से उसकी पीहर की मधुर स्मृतियाँ दिन-प्रतिदिन विस्मृत होती जा रही थीं, धुंधला रही थीं। | वज्रबाहु का वैराग्य : एक दिन वज्रजंघ के पिता महाराज वज्रबाहु महल की छत पर बैठे शरद ऋतु के | उठते-विलय होते बादलों को देख रहे थे कि उन्हें वैराग्य हो गया। वे मन में इसप्रकार विचार करने लगे - "जिस सम्पदा पर एवं भोगोपभोगों की सुखद सामग्री पर हम गर्व करते हैं, वह सब इन शरद ऋतु के बादलों की भांति क्षणभर में विलीन होने वाले हैं, नष्ट होनेवाले हैं। यह लक्ष्मी बिजली के समान चंचल एवं क्षणभंगुर है। पुण्योदय से प्राप्त ये भोग जो प्रारंभ में अच्छे लगते हैं, पाप का उदय आने पर ये भारी | संताप देते हैं। यह आयु भी अंजुली के जल के समान प्रत्येक पल में क्षीण होती जा रही है। ये रूप, आरोग्यता, ऐश्वर्य, प्रिय बन्धु-बान्धवों एवं प्रिय स्त्री का प्रेम सब क्षणभंगुर है।"
इसप्रकार विचार कर महाराजा वज्रबाहु ने अपने पुत्र वज्रजंघ का राज्याभिषेक कर दिया और राज्य तथा भोग सम्पदा का त्याग कर स्वयं ने श्रीयमधर मुनि के समीप ५०० राजाओं के साथ जिनदीक्षा ले ली। इसीसमय श्रीमती से उत्पन्न वज्रजंघ के अट्ठावनवे (९८) पुत्रों ने भी अपने दादा और राजऋषि वज्रबाहु के साथ दीक्षा ले ली। विशुद्ध परिणामों के धारी वज्रजंघ के ९८ पुत्र वीरवाहु आदि मुनियों के साथ वज्रबाहु चिरकाल तक विहार करते रहे और क्रम-क्रम से केवलज्ञान प्राप्त कर मुक्त हो गये।
वज्रजंघ पिता वज्रबाहु के द्वारा प्रदत्त राज्य को प्राप्त कर प्रजा का पालन करता हुआ चिरकाल तक राज्य सुख भोगता रहा। देखो! संसार की विचित्रता पिता राजभोगी और पुत्र वैरागी।
राजा वज्रजंघ के यद्यपि अनेक रानियाँ थीं; तथापि उसका श्रीमती के प्रति विशेष अनुराग था, इसकारण वह अन्य रानियों के प्रति प्रायः निस्पृह ही रहता था; क्योंकि श्रीमति का जीव वज्रजंघ के पूर्वभव ललितांग देव की प्राणप्रिया स्वयंप्रभा नाम की महादेवी थी। इस पूर्व संस्कार के कारण वह राजा वज्रजंघ श्रीमति
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