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|| विवाहोपरान्त श्रीमती के साथ वज्रजंघ विपुल पूजन सामग्री लेकर जिन मंदिर पहुँचा। जिन प्रतिमा को | साक्षात् जिनेन्द्र के रूप में देखते हुए उस दम्पत्ति ने तीन प्रदक्षिणा दी, प्रमादवश होनेवाली जो जीवहिंसा
और मार्ग में चलते समय होनेवाली अशुद्धता को दूर करने के लिए प्रायश्चित्त एवं ईर्यापथशुद्धि की। पश्चात् धर्म और धर्मायतनों की वन्दना करके जिनेन्द्र पूजन की।
स्तुति करते हुए वज्रजंघ ने प्रभु को संबोधित करते हुए कहा कि - "हे देव! यद्यपि आप वीतराग हैं, सर्वज्ञ हैं, फिर भी हितोपदेशी विशेषण से स्मरण किये जाते हैं; आपको हितोपदेश देने की इच्छा न होते हुए भी भव्य जीवों के भाग्य से आपके द्वारा जगत का कल्याण करनेवाली दिव्यध्वनि सहज खिरती है। यह भी तो आपका एक अतिशय है। हे प्रभो ! सचमुच संसार में कोई सुख नहीं है, तभी तो आपने चक्रवर्ती और तीर्थंकर तुल्य भोग और यश का भी त्याग कर एवं आत्माराधना कर परमात्मपद प्राप्त किया है। कहा भी है
जो संसार विर्षे सुख होता, तीर्थंकर क्यों त्यागे।
काहे को शिव साधन करते, संयम सो अनुरागे। हे देव! वैसे तो जो अनन्त गुण आप में हैं, वैसे ही अनन्त गुणों का धनी मेरा आत्मा भी है; परन्तु आपने स्वभाव सन्मुखता का अनन्त पुरुषार्थ करके उन गुणों की निर्मल अभिव्यक्ति कर ली है और हम पर्यायमूढ़ होकर पर-पदार्थों में अटक कर संसार में ही भटकते रहे हैं। आप जैसे अनन्त तीर्थंकर अनादिकाल से हमें हितोपदेश देकर मुक्त हो गये; फिर भी हम अपने स्वभाव को भूलकर संसार में पड़े दुःख भोग रहे हैं।
हे प्रभो ! अब कुछ-कुछ समझ में आ रहा है कि मैं भी आपकी भांति ही ज्ञानानन्द स्वभावी हूँ, मैं अखण्ड, अविनाशी चैतन्य घन का पिण्ड प्रभु हूँ। यदि मैं अपने इस स्वभाव को पहचान लूँ तो मैं भी पर्याय में प्रगट परमात्मपद प्राप्त कर सकता हूँ।
हे देव ! आपके द्वारा निरूपित तत्त्व, जन्म-मरण के नाश का कारण है। इसी से प्राणियों की इस लोक ॥ एवं परलोक संबंधी समस्त कार्यों की सिद्धि होती है । हे देव! समस्त भाषाओं में परिणमित होनेवाली आप ||
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