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सत्कार किया तथा कहा कि "मेरे घर में यदि तुम्हारे योग्य सर्वप्रियवस्तु हो तो तुम उसे पाने को सहर्ष अपना अभिप्राय प्रगट करो। "
वज्रबाहु ने कहा – “हे राजन् ! आपका दिया हुआ हमारे पास सब कुछ है। आपके शासन में हमें किसी वस्तु की कमी नहीं है । धन, दौलत, सोना, चाँदी, हीरे-जवाहरात और राजपाट आदि सभी भोगोपभोग सामग्री हमारे पास है; अत: हम मांगे भी तो क्या मांगे ? हाँ, यदि उचित समझे तो अपने ही भानजे को अपनी बेटी श्रीमती प्रदान करें। हम उसका हाथ अपने बेटे के लिए माँगते हैं । वज्रजंघ आपकी ही बहिन का बेटा आपका भानजा है, इसकारण आप उसके गुणों से सुपरिचित हैं। इन दोनों के कई भवों से संस्कार होने से ये एक-दूसरे को हृदय से चाहते भी हैं। "
चक्रवर्ती वज्रदंत भी यही चाहते थे कि वज्रबाहु मेरी बेटी का हाथ माँगे । अतः उनके मनोरथ की पूर्ति हो गई। इसकारण उनके हर्ष का ठिकाना न रहा। चक्रवर्ती वज्रदंत के आदेश को पाकर नगर सजाया गया, शादी की तैयारियाँ हुईं। दोनों पक्ष प्रसन्न तो थे ही। अपनी-अपनी सामर्थ्य के अनुसार दोनों पक्षों द्वारा भारी महोत्सव मनाया गया। वज्रजंघ ने हर्ष के साथ श्रीमती का पाणिग्रहण किया । हर्षोल्लास के साथ दीनदरिद्रों को धन देकर उनकी दरिद्रता दूर कर दी गई।
समस्त प्रजा उनके भाग्य की सराहना करते हुए कह रही थी कि इन्होंने पूर्व जन्म में ऐसा कौन-सा तप | किया, कैसी धर्म की आराधना की, कौन-सा दान दिया ? किसकी पूजा की ? अथवा कौन-सा व्रत पालन | किया ? जिससे इनको ऐसे सुन्दर संयोग मिले । अहो ! धर्म की बड़ी महिमा है, तपश्चरण से उत्तम सुख प्राप्त होता है । दया दान, भक्ति-पूजा आदि से किस मनोरथ की पूर्ति नहीं होती ? सबके सब मनोरथों को पूर्ण करनेवाला एकमात्र अहिंसामयी वीतराग धर्म ही तो है। जो लौकिक और पारलौकिक सुख चाहते हैं, उन्हें धर्म की आराधना करना ही चाहिए। कहा भी है -
धरम करत संसार सुख, धरम करत निर्वाण । धरम पन्थ साधे बिना, नर तिर्यंच समान ।।
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