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है और प्रमादरहित हो स्वाध्याय-सामायिक आदि धार्मिक क्रियाओं में ही हमारा अधिकांश समय व्यतीत | होना चाहिए; अन्यथा मात्र अन्नाहार का त्याग करना लंघन के सिवाय कुछ नहीं है।
इन उपवासों को लौकिक कामनाओं के त्यागपूर्वक एवं आगमानुसार विधिपूर्वक करने से स्वर्गादिक की प्राप्ति एवं परम्परा से मुक्ति प्राप्त होना आगम में कहा है। || तब श्रीमती के ही जीव ने जो पूर्व पर्याय में दरिद्र कुल में उत्पन्न निर्नामा थी, उसने मुनिराज के | निर्देशानुसार वे व्रत-उपवास विधिपूर्वक किए, फलस्वरूप वह स्वर्ग गई। वहाँ ललितांग देव की स्वयंप्रभा नाम की प्राण प्रिया महादेवी हुई। वहाँ से चयकर वज्रदन्त चक्रवती की श्रीमती नाम की पुत्री हुई।
वह श्रीमती पण्डिता धाय से कहने लगी - "तू ही मेरे होनेवाले पति को खोजने में समर्थ है, मेरे योग्य वर की तलाश करने में सक्षम है। हे सखि ! तू समस्त कार्य करने में निपुण है। इसीकारण तेरा ‘पण्डिता' | नाम सार्थक है।"
पण्डिता धाय ने अपनी युक्तियों से नाना उपायकर श्रीमती के पूर्वभव के पति ललितांगदेव की खोज प्रारंभ की। इधर श्रीमती का पिता वज्रदन्त जो छह खण्ड पर विजय प्राप्त करने निकला था, वह विजयश्री को प्राप्त कर जब लौटा तो उसने मानसिक पीड़ा से पीड़ित पुत्री को बुलाकर कहा - "हे पुत्री! शोक मत कर! मैं अवधिज्ञान से तेरे भावी पति का वृतान्त जानता हूँ। तू प्रसन्न हो और स्नान आदि नित्यकर्म से निबट कर वस्त्राभूषण धारण कर! तेरे भावी पति का समागम आज या कल अवश्य होगा।
यशोधर मुनिराज के केवलज्ञान महोत्सव के समय मुझे अवधिज्ञान हो गया था, उससे मैं कुछ भवों का वृतान्त जानने लगा हूँ। मैं तुझे तेरे भावी पति के पूर्व भवों का वृतान्त सुनाता हूँ।"
अवधिज्ञानी पिताश्री वज्रदन्त के द्वारा श्रीमती ने ललितांगदेव और स्वयंप्रभा के अपने पूर्वभवों को जानकर कहा - "हे तात् ! मुझे भी जातिस्मरण ज्ञान से यह तो स्मरण हो गया है कि मैं ललितांगदेव की महादेवी स्वयंप्रभा थी। मैं तो अब यह जानना चाहती हूँ कि वह ललितांगदेव स्वर्ग से चयकर कहाँ उत्पन्न हुआ है और इससमय कहाँ है ?
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