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को प्राप्त हो गई है, निश्चय ही इसे अपने पूर्वभव के स्नेही स्वामी का स्मरण हो आया है; क्योंकि रागी || जीव प्रायः पूर्व संस्कारों का स्मरण कर मोह में मूर्च्छित हो ही जाते हैं। श्रीमती के मूर्छित होने का अन्य कोई कारण नहीं है।" ऐसा कहकर महाराजा वज्रदन्त पण्डिता धाय को श्रीमती की सेवा में नियुक्त कर चले गये। उससमय राजा वज्रदन्त के सामने दो बड़े महत्त्वपूर्ण काम और थे। एक तो अपने गुरु यशोधर || को हुए केवलज्ञान की पूजा करना और दूसरा - आयुधशाला में उसीसमय चक्ररत्न उत्पन्न हो गया था, | अत: दिग्विजय को निकलना अनिवार्य हो गया था। बुद्धिमान महाराज वज्रदन्त ने सर्वप्रथम केवलज्ञान की | पूजा करने का निश्चय किया; क्योंकि अर्हन्त पूजा एक धार्मिक कार्य है और धार्मिक कार्यों को प्राथमिकता देना ही बुद्धिमानी है।
चक्रवर्ती महाराजा वज्रदन्त के इस आदर्श और अनुकरणीय निर्णय से पाठकों को यह शिक्षा मिलती | वाँ है कि यदि दो महत्त्वपूर्ण कार्य करने के समाचार एक साथ मिलें तो सर्वप्रथम धर्मकार्य ही करना चाहिए।
यशोधर परमात्मा को भक्तिपूर्वक नमस्कार करते ही चक्रवर्ती वज्रदन्त को अवधिज्ञान प्राप्त हो गया। निस्पृह भाव से की गई भक्ति से ऐसे उत्कृष्ट फल का प्राप्त होना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। जिनेन्द्र भक्ति से ऐसे मनोरथों की पूर्ति होना सहज कार्य है। जैसा कि चक्रवर्ती वज्रदन्त के जीवन में देखा गया। राजा वज्रदंत ने केवली भगवान यशोधर की पूजा करने के बाद चक्ररत्न की भी पूजा की और अपनी सेना के साथ चारों दिशाओं को जीतने के लिए प्रस्थान करा।
यद्यपि श्रीमती ने भी अपने पूर्वभव की बात जाति स्मरण ज्ञान से जान ली थी, किन्तु संकोच के कारण वह प्रगट नहीं कर रही थी। पण्डिता धाय से विशेष अपनेपन के कारण श्रीमती ने अपने पूर्वभव के स्नेह की पूर्वोक्त कथा पण्डिता धाय को सुना दी।
चक्रवर्ती वज्रदन्त की पुत्री श्रीमती ने अपने उस पूर्वभव का भी परिचय पण्डिता धाय को दे दिया, जिस पूर्वभव में वह दरिद्रता को प्राप्त सेठ नागदत्त के घर सुमति सेठानी के उदर से निर्नामा नाम की दरिद्र कन्या उत्पन्न हुई थी और पिहितास्रव मुनि से अपनी दरिद्रता का कारण और उसके निवारण का उपाय पूछा था।|
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