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उस सभा में सामानिक जाति के देवों ने आकर उस ललितांग देव का मरण संबंधी विषाद दूर करने के लिए उद्बोधन देते हुए समझाया कि "हे धीर ! संसार में जन्म-मरण आदि किसके नहीं होते? स्वर्ग से च्युत होना बहुत साधारण बात है; क्योंकि यह स्वर्ग का वैभव तो पुण्य का फल था, जो पुण्य क्षीण होने
पर छोड़ना ही पड़ता है। जिस स्वर्ग सुख के लिए अज्ञानी लालायित रहता है, उस स्वर्ग की अवधि समाप्त ॥ होते ही वे सब भोग आदि के सुख तीव्र दुःख में परिवर्तित हो जाते हैं; इसलिए हे आर्य ! शोक न कीजिए। तथा अपने उपयोग को धर्म में लगाइये; क्योंकि धर्म ही परम शरण है।"
इसप्रकार सामानिक देवों के द्वारा समझाये जाने पर ललितांग देव ने धैर्य धारण किया। धर्म में बुद्धि लगाई और १५ दिन तक समस्त लोक के जिन चैत्यालयों की पूजा की तथा आयु के अन्त में सावधान होकर चैतन्य वृक्ष के नीचे बैठ गया। वहाँ निर्भय होकर उच्च स्वर से णमोकार मंत्र का उच्चारण करते हुए अदृश्य हो गया, मृत्यु को प्राप्त हो गया। __वही ललितांग देव ऐशान स्वर्ग से चयकर राजा वज्रबाहू और रानी वसुन्धरा से वज्रजंघ नामक पुत्र हुआ था। यह वज्रजंघ तीर्थंकर ऋषभदेव का ही छटवें पूर्वभव का जीव था। जो पाँच भव बाद आदिनाथ के रूप में अवतरित हुआ।
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