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राजा महाबल ने अपने मंत्री स्वयंबुद्ध के द्वारा मुनिराज के कहे अनुसार अपने दोनों स्वप्नों का फल जानकर और अपनी आयु एक माह ही शेष जानकर अपना मन धर्म में लगाया। सर्वप्रथम महाबल ने आठ | दिन तक अष्टाह्निका महापर्व मनाया। इसके पश्चात् अपने पुत्र अतिबल को अपना राज्य सौंपकर सब प्रकार के सांसारिक बन्धनों को छोड़कर अपने मंत्री स्वयंबुद्ध आदि को लेकर सिद्धकूट चैत्यालय पहुँचा । वहाँ उसने अपने मंत्री स्वयंबुद्ध आदि को लेकर सिद्धकूट चैत्यालय पहुँचा । वहाँ उसने अपने मंत्री स्वयंबुद्ध को निर्यापकाचार्य बनाकर सल्लेखना धारण की। सब जीवों के साथ मैत्रीभाव रखते हुए वह शत्रु, मित्र आदि में समताभाव रखने लगा। सब प्रकार के बाह्य-अभ्यन्तर परिग्रह का त्याग करके परिग्रह त्यागी मुनि के समान प्रतीत होने लगा ।
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संयास मरण के इसतरह सतरह भेद हैं; परन्तु मुख्यतया तीन मरण उत्तम हैं । १. भक्तप्रत्याख्यान, २. हा इंगिणीमरण, ३. प्रायोपगमन । इनका संक्षेप में निरूपण निम्नप्रकार है -
१. भक्तप्रत्याख्यान – इस मरण में स्वयं भी अपनी वैयावृत्य करता है और दूसरों से भी कराता है । इसप्रकार जो संयास मरण कहा जाता है, उसे भक्तप्रत्याख्यान मरण कहते हैं।
२. इंगिणीमरण - इसमें अपनी वैयावृत्य स्वयं ही करता है, दूसरों से नहीं कराता । इसप्रकार की प्रतिज्ञा पूर्वक जो मरण किया जाता है, उसे इंगिणीमरण कहते हैं ।
३. प्रायोपगमन - इसमें अपने पैरों से चलकर एकल विहारी होकर, योग्य स्थान पर आश्रय लेता है एवं न स्वयं अपनी सेवा करता है और न दूसरों से कराता है।
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अर्थात् जिसमें स्वकृत और परकृत दोनों प्रकार के उपचार न हों। इसप्रकार जो मरण करता है, उसे प्रायोपगमन या पादोपगमन भी कहते हैं।
राजा महाबल ने प्रायोपगमन नाम का समाधिमरण करा था । उसने धीरे-धीरे आहार- पानी का त्याग
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