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| तब मुनि पिहितास्रव ने श्रीमती को उसके भी पूर्व भव धनश्री की पर्याय में समाधिगुप्त मुनिराज के समीप मरे हुए कुत्ते का दुर्गन्धित कलेवर डालकर मुनि की अवमानना की थी एवं इसी घ्रणित कार्य के कारण ही | दरिद्र कुल में यहाँ निर्नामा हुई हो और उस पाप के निवारण करने के लिए दो व्रत धारण करने को कहा था। पहला - जिनेन्द्र गुण सम्पत्तिव्रत और दूसरा - श्रुतज्ञानव्रत । उपर्युक्त दोनों व्रतों का संक्षिप्त सार इसप्रकार है
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(१) जिनेन्द्र गुण सम्पत्तिव्रत - तीर्थंकर नामक पुण्य प्रकृति के कारणभूत सोलहकारण भावनायें, पाँच कल्याणक, आठ प्रातिहार्य तथा चौंतीस अतिशय इन त्रेसठ श्रेष्ठ गुणों के उद्देश्य से त्रेसठ उपवास करना जिनेन्द्रगुण सम्पत्तिव्रत है । इस व्रत में सोलह कारण भावनाओं की सोलह प्रतिपदा, पाँच कल्याणकों की पाँच पंचमी, आठ प्रातिहार्यों की आठ अष्टमी और चौंतीस अतिशयों की बीस दशमी और १४ चतुर्दशी त - इसप्रकार कुल ६३ उपवास होते हैं। इन उपवास के दिनों में प्रमाद रहित होकर २४ घंटों में ६ घंटे विश्राम वाँ | के अतिरिक्त शेष समय का सदुपयोग स्वाध्याय में करना चाहिए; क्योंकि स्वाध्याय ही परमतप है । उपवास का स्वरूप बताते हुए कहा -
'कषायाविषयाहारो त्यागो यत्र
विधीयते । उपवास: स: विज्ञेया, शेषं लंघनकम विदुः ।। "
तात्पर्य यह है कि कषायों और पंचेन्द्रिय के विषयों के साथ अन्न का त्याग ही उपवास है। यदि यह नहीं हैं तो केवल आहार का त्याग तो लंघन ही है ।
(२) श्रुतज्ञान व्रत - इस व्रत में पाँचों ज्ञानों के प्रभेदों के क्रमानुसार १५८ उपवास किए जाते हैं। इनका क्रम इसप्रकार है - मतिज्ञान के २८, ग्यारह अंगों के ११, परिकर्म के २, सूत्र के ८८, अनुयोग का १, पूर्व के १४, चूलिका के ५, अवधिज्ञान के ६, मन:पर्ययज्ञान के २ और केवलज्ञान का १ - इसप्रकार पाँचों | ज्ञानों के उपर्युक्त भेदों की प्रतीति कर १५८ दिन उपवास किए जाते हैं।
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इन सभी उपवासों में उपर्युक्त कषाय-विषय के त्याग के साथ ही आहार के त्याग का नियम लागू होता सर्ग
१. आत्मानुशासन