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हे आयुष्मान ! इसीप्रकार आपके पिता ने भी आपके लिए राज्य भार सौंपकर वैराग्यभाव से उत्कृष्ट जिनदीक्षा धारण कर ली है। हे राजन् ! मैंने धर्म एवं अधर्म का सेवन करनेवाले आपके वंश के व्यक्तियों
की ही यथार्थ घटनाओं के रूप में चारों ध्यानों के फलों के चार उदाहरण प्रस्तुत किए हैं। | देखिये राजा अरविन्द दाह्मज्वर को दूर करने के हेतु खून में स्नान करने के संकल्प से रौद्र ध्यान के | कारण नरक गये। आर्तध्यान के फलस्वरूप राजा दण्ड अपने ही भंडार में अजगर हुए। शतबल धर्मध्यान
से स्वर्ग गये और सहस्त्रबल शुक्लध्यान से मुक्त हुए। इन चार ध्यानों में प्रथम दो ध्यान कुगति के कारण हैं और बाद के दो धर्मध्यान करनेवालों को स्वर्ग के भोग तो सुलभ हैं ही, वे ही कालान्तर में शुक्ल ध्यान की सीढ़ी पर आरोहण कर मुक्तिपद प्राप्त करते हैं। अत: आर्त-रौद्र ध्यान से बचें एवं धर्म-ध्यान करें।"
इसप्रकार स्वयंबुद्ध मंत्री के संबोधन से सम्पूर्ण सभा प्रसन्न हुई। सबको विश्वास हो गया कि जिनेन्द्रप्रणीत तत्त्व ही वास्तविक धर्म है, अन्य मतान्तर धर्म नहीं; बल्कि धर्माभास हैं।
राजा महाबल ने मंत्री स्वयंबुद्ध के द्वारा कहे तत्त्वज्ञान पर अपनी श्रद्धा व्यक्त करके उसका सत्कार किया। एकबार स्वयंबुद्ध सुमेरु पर्वत पर विराजमान जिनबिम्बों के दर्शनार्थ गया, वहाँ के सौन्दर्य का वर्णन करने में स्वयं को असमर्थ पाता हुआ अवाक् रह गया।
सुमेरु की वंदना करते हुए स्वयंबुद्ध मंत्री ने आकाश में चलनेवाले आदित्यगति और अरिंजय नामक दो मुनि अकस्मात् देखे। वे दोनों ही मुनि युगमन्धर स्वामी के समवसरण रूप सरोवर के प्रमुख हंस थे। स्वयंबुद्ध ने सामने पहुँचकर उनकी पूजा की एवं उनसे अपने मनोरथ पूछे । स्वयंबुद्ध ने पूछा - "मुनिवर! आप भविष्यज्ञ हैं, मुझे यह बताइए कि महाराज महाबल भव्य हैं या अभव्य ?" तब आदित्यगति मुनिराज ने कहा “अरे ! भव्य तो हैं ही, वह तो भावी तीर्थंकर भी हैं, इसी जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में आगामी युग के प्रारंभ में प्रथम तीर्थंकर होंगे।
हे मंत्रीवर! इन राजा महाबल ने पूर्वभव में भोगों की इच्छा के साथ धर्म के बीज बोये थे। ये अपने || सर्ग | पूर्वभव में विदेह क्षेत्र में जयवर्मा नामक राजपुत्र थे। उस भव में श्रीवर्मा इनके छोटे भाई थे। वे प्रजा में अधिक
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