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आकर उसका सत्कार किया तथा उसे प्रकाशमान मणियों से शोभायमान एक हार दिया, जो कि आज भी || आपके गले में दिखाई दे रहा है।"
यद्यपि राजादण्ड की यह कथा विषयासक्ति से विरक्त होने का संदेश देती है; किंतु जबतक विषयों में सुखबुद्धि रहेगी तब तक इन्हें छोड़ना कठिन ही नहीं असंभव है। अत: तत्त्वज्ञान के यथार्थ ज्ञान से सर्वप्रथम 'संयोगों में सुख है ही नहीं इस सत्य को समझना आवश्यक है।
स्वयंबुद्ध मंत्री ने तीसरी घटना सुनाते हुए कहा - "हे राजन् महाबल ! मैं आपको सत्य घटना के रूप में एक वृतान्त और सुनाना चाहता हूँ। उस वृतान्त को जानने व देखनेवाले कितने वृद्ध विद्याधर आज भी विद्यमान हैं। राजा शतबल नाम के आपके दादा हुए हैं। उन्होंने चिरकाल तक राज्यसुख भोगकर अंत में आपके पिताश्री अतिबल को राज्यसत्ता सौंप दी और स्वयं राज्य से एवं राजसुख-सुविधाओं तथा भोगों से निस्पृह हो गये। उन्होंने सम्यग्दर्शन प्राप्त कर श्रावक के व्रत ग्रहण कर लिए और विशुद्ध परिणामों से देव आयु का बन्ध कर लिया। अन्त में समाधिमरण पूर्वक शरीर छोड़ा। फलस्वरूप कुछ अधिक सात सागर की आयु सहित महेन्द्र स्वर्ग में बड़ी-बड़ी ऋद्धियों के धारक देव हुए। एक दिन आप सुमेरु पर्वत के नन्दनवन में क्रीड़ा करने के लिए मेरे साथ गये थे। वहीं पर वह देव भी आया था। आपको देखकर पूर्व संस्कार के स्नेहवश उसने आपको उपदेश दिया था कि - हे कुमार ! अहिंसामयी यह वीतराग धर्म ही सर्वश्रेष्ठ धर्म है, इसे तुम कभी नहीं भूलना।"
स्वयंबुद्ध मंत्री ने महाबल राजा को चौथी घटना सुनाते हुए कहा कि - "आपके पिता अतिबल के दादा और आपके परदादा महाराज सहस्त्रबल थे। अनेक विद्याधर राजा उनकी आज्ञा शिरोधार्य करते थे। उन्होंने अपने पुत्र शतबल महाराजा को राज्य देकर मोक्ष प्राप्त करनेवाली उत्कृष्ट जिनदीक्षा ग्रहण की थी। वे मुनि होकर तपश्चरण कर तपरूपी किरणों के द्वारा केवलज्ञान प्राप्त करके दिव्यध्वनि द्वारा समस्त पृथ्वी को तत्त्वज्ञान से आलोकित करते हुए मोक्षपद को प्राप्त हुए।
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