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| करके शरीर से स्नेह छोड़ दिया था। इसप्रकार बाईस (२२) दिन तक सल्लेखना का समय व्यतीत करते | रहे। जब आयु का अन्तिम समय आया, तब उन्होंने अपना मन विशेषरूप से पंचपरमेष्ठियों की आराधना
में लगाया। आत्मा को शरीर से पृथक् चिन्तवन करते हुए, अपने शुद्ध आत्मस्वरूप को भाते हुए स्वयंबुद्ध | मंत्री के सान्निध्य में समतापूर्वक अपने प्राण (देह) छोड़े। आयु की अवधि पूर्ण होने पर मरण को प्राप्त होकर | ऐशान स्वर्ग में ललितांग नामक देव हुआ। यह ललितांग का भव भगवान ऋषभदेव का सातवाँ पूर्व भव
था। देवगति के नियोग में प्राप्त होनेवाले नाना सुखों को भोगना ललितांग की मजबूरी थी, अत: पर्यायगत कमजोरी के कारण वह देव पर्याय में प्राप्त दिव्य भोगों की अनुकूलताओं को भोगने लगा। वह एक हजार वर्ष बाद मानसिक आहार लेता था। एक पक्ष में श्वासोच्छ्वास लेता था। उसके चार हजार देवियाँ और चार महादेवियाँ थीं। अपने किए हुए पुण्य कर्म के उदय से देवांगनाओं के साथ कुछ अधिक एक सागर तक दिव्य भोग भोगता रहा।
आचार्य कहते हैं कि 'हे भद्र पुरुषो ! यदि तुम संसार दुःखों से बचना चाहते हो तथा ललितांग देव की भांति वर्तमान में स्वर्गों के सुख भोगकर कालान्तर में तीर्थंकर ऋषभदेव की भांति परमात्मपद प्राप्त करना चाहते हो तो वीतराग धर्म के मार्ग में अग्रसर रहो । भोगों की तृष्णा को छोड़कर जिनेन्द्रदेव की भक्तिभावना करते हुए रत्नत्रय की आराधना द्वारा पापों से बचो तथा संयम-तप की साधना करो।
ललितांग देव की सागराधिक आयु भी बातों-बातों में ही बीत गई। जब उसका अन्तिम समय निकट आ गया तो उसके आभूषण की मणियाँ निस्तेज हो गईं। वक्षस्थल पर पड़ी माला फीकी पड़ गई। उसके शरीर की कान्ति भी मन्द पड़ गई।
नरकों के सिवाय संसारी जीव जिस पर्याय में जाता है, उसे छोड़ने में उसे दुःख होता ही है। यही तो राग का स्वरूप है। ललितांग देव यद्यपि मनुष्यपर्याय में आनेवाला था तो भी वह दुःखी हुआ। उसकी दीनता देखकर उसके सेवक भी उदास हो गये । उस समय ऐसा प्रतीत होता था मानों पूरे जीवन भर के सुख, दुःख बनकर आ गये हों।
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