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भी वह नहीं मानता। अतएव इसे नास्तिक संज्ञा भी प्राप्त है । यह नास्तिक मत ऐसा मानता है कि पृथ्वी, पानी, आग, हवा आदि पाँच भौतिक पदार्थ मिलकर जीव की उत्पत्ति हो जाती है और मृत्यु के समय ये | पंचभूत बिखरकर अपने यथास्थान पहुँच जाते हैं। ये आत्मा का पुनर्जन्म नहीं मानते। इस कारण इनके यहाँ दया-दान आदि धर्म का कोई स्थान ही नहीं है। इस मंत्री ने स्वयंबुद्ध मंत्री के मत के विरोध में तर्क दिया कि “जब शरीर से पृथक् कोई आत्मा कभी दिखाई ही नहीं देता तो शरीर से भिन्न कोई आत्मा कैसे हो सकता है ? इसलिए जो धर्म नाम पर प्रत्यक्ष सुख छोड़ परलोक के सुख की कल्पित कल्पनायें करते हैं, वे दोनों सुखों से वंचित रहते हैं । चार्वाक मत कहता है - जबतक जिओ, सुख से जिओ और कर्ज लेकर घी पिओ, क्योंकि देह के भस्मीभूत होने पर आत्मा का पुन: आगमन ही नहीं होता । अत: 'मर कर बैल बन कर भी कर्ज चुकाना पड़ता है।' यह साहूकारों द्वारा भ्रम भरा प्रचार है। परलोक के सुखों की चाह ल से ठगाये हुए जो मानव प्रत्यक्ष भोगों को त्याग देते हैं, वे न अभी मजा ले पाते हैं और न उन्हें परलोक में औ कुछ हाथ आता है, क्योंकि जब परलोक है ही नहीं तो सुख मिलेगा किसको ?”
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इसप्रकार चार्वाक मत का पक्षधर महामति मंत्री जब अपने तर्क एवं युक्तियाँ देकर चुप हो गया तो विज्ञानाद्वैतवादी विचारधारा वाला सभिन्नमति नाम का तीसरा मंत्री बोला और उसने अपने मत की पुष्टि में कहा – “जीव आदि तत्त्वों को माननेवाले हे स्वयंबुद्ध ! आपका माना हुआ 'जीव' नाम का कोई पृथक् पदार्थ (तत्त्व) नहीं है; क्योंकि उसकी शरीर से पृथक् उपलब्धि नहीं होती। यह समस्त जगत 'विज्ञान' मात्र है; र्श क्योंकि यह क्षणभंगुर है। जो-जो क्षणभंगुर होते हैं, वे सब ज्ञान के विकार होते हैं । यदि ज्ञान के विकार न | होकर स्वतंत्र पृथक् होते तो वे नित्य होते; परंतु संसार में कोई पदार्थ नित्य नहीं है, इसलिए वे सब ज्ञान की एक समय की पर्याय मात्र है। विज्ञान निरंश है, अवान्तर भागों से रहित है। बिना परम्परा आगे बढ़ाए ही उसका | नाश हो जाता है और वह स्वभावतः न तो किसी अन्य ज्ञान के द्वारा जाना जाता है और न किसी को जानता ही है। एक क्षण रहकर समूल नष्ट हो जाता है। यह ज्ञान नष्ट होने के पहले ही अपनी सांवृत्तिक सन्तान छोड़ | जाता है, जिससे पदार्थों का स्मरण होता रहता है। वह सन्तान अपने सन्तानी (ज्ञान) से भिन्न नहीं है । "
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