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इसप्रकार यदि ज्ञान को मानते हो तो उसके विषयभूत पदार्थों को भी मानना होगा। जब आप साधन आदि शब्दों का प्रयोग करते हो तो साधन से भिन्न 'साध्य' मानना ही पड़ेगा। और साध्य के रूप में घटपट आदि बाह्य पदार्थ ही होंगे। इसतरह द्वैतपना होने से विज्ञान का अद्वैतवाद खण्डित हो जाता है।"
इसके बाद स्वयंबुद्ध मंत्री ने कपोल कल्पित शून्यवाद का भी निराकरण करते हुए कहा - "शून्यत्व को प्रतिपादित करने वाले वचन और उनसे उत्पन्न होनेवाला ज्ञान है या नहीं? यदि आप इनके उत्तर में यह कहें कि 'हाँ' हैं तो आपकी वाणी से ही आपका मानना मिथ्या सिद्ध हो गया। आप यदि वचन और उससे उत्पन्न ज्ञान को स्वीकृत नहीं करते तो अपने शून्यवाद का समर्थन किसके द्वारा करेंगे? इससे यह सिद्ध है कि जीवादि पदार्थ हैं तथा दया, दान, संयमवाला धर्म भी है।"
इसप्रकार स्वयंबुद्ध मंत्री के वचनों से सम्पूर्ण सभा ने आत्मा का पृथक् अस्तित्व स्वीकार कर लिया। राजा महाबल भी खूब प्रसन्न हुए। इसके अनन्तर जब सभी शान्तभाव से बैठ गए, तब स्वयंबुद्ध मंत्री देखी, सुनी और अनुभव की हुई पदार्थ संबंधी कथाएँ कहने लगे।
स्वयंबुद्ध ने पहली कथा सुनाते हुए कहा - "हे राजन् ! कुछ समय पहले आपके वंश में एक अरविन्द नाम का विद्याधर हुआ। वह पुण्योदय से शत्रुओं के गर्व को चूर करता हुआ इसी अलकानगरी का शासक था। उसके दो पुत्र थे - एक हरिचन्द्र और कुरुविन्द । विद्याधर अरविन्द ने रौद्रध्यान के चिन्तन से नरक आयु का बंध कर लिया। जब उसके मरने के दिन निकट आये तब उसको दाहज्वर हो गया। उसे किसी भी औषधि से सुख-चैन नहीं मिल रहा था, वैभव और नौकर-चाकरों की सेवा से भी उसे सुख-शान्ति नहीं थी। उस समय पुण्यक्षय होने से उसकी समस्त विद्यायें उसे छोड़कर चली गईं। इसकारण वह अशक्त हो गया। उसने अपने पुत्र हरिचन्द से कहा - 'मुझे शीतल प्रदेश में पहुँचा दो'; किन्तु इस पुण्यहीन को उसका पुत्र चाहते हुए भी शीतल प्रदेश में नहीं भेज पाया। हरिचन्द पिता की बीमारी को असाध्य जानकर किंकर्तव्यविमूढ़ हो गया।