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उलझाये हुए हैं कि उसे मरने की भी फुरसत नहीं है। यह कैसी विडम्बना है? पहले तो स्वयं पूरी ताकत लगाता है और जब असफल हो जाता है तो ईश्वर के माथे मढ़ता है। ऐसा कोई ईश्वर कैसे संभव है जो अपना सुख-दुःख भूलकर अनन्त प्राणियों एवं चर-अचर जन्तु जगत के पीछे पड़ा रह सके?
दोनों दार्शनिक मान्यताओं में कौन सच है ? कौन सच नहीं है ? यह तो अभी अज्ञानी जगत के सामने | कोई मुद्दा ही नहीं है क्योंकि दोनों ही मतों के माननेवाले लोग भले ही अपने-अपने मतों को कुलधर्म की अपेक्षा सत्य मानते हों; परंतु व्यावहारिक धरातल पर तो प्रायः सभी स्वयं को ही सब कार्यों का कर्ता मानकर परोक्षरूप में दोनों ही मतों में अपनी-अपनी अश्रद्धा एवं असहमति प्रगट कर रहे हैं।
सामान्य जगत यह सोचता है कि बड़े-बड़े पण्डितों की बातें तो वे जाने पर हमारी समझ में तो यह नहीं आता कि यदि ये सब घर-गृहस्थी के कार्य ईश्वर करता है या ऑटोमेटिक ही होते हैं तो हम जो आठआठ घंटे पसीना बहाते हैं, यह सब क्या है ? यदि हम दिन-रात एक कर काम न करें तो ऑटोमेटिक कैसे हो जायेंगे? अथवा क्या ईश्वर किसी के चौके में आकर रोटियाँ बनायेगा, बर्तन मांजेगा या कपड़े धोयेगा? ____ अरे भाई ! यही तो हमारा अज्ञान है, निरीश्वरवादी जैनदर्शन के अनुसार तो प्रत्येक कार्य के अपने स्वयं | के पाँच समवाय (कारण) होते हैं। उनमें हमारे विकल्प और विकल्प के अनुसार क्रिया की परिणति तो मात्र एक निमित्त कारण है। जब तक स्वभाव, पुरुषार्थ, होनहार और स्वकालरूप स्वयं कार्य की उपादान की योग्यता नहीं होती तबतक मात्र हमारा निमित्त किसी भी कार्य को कोई अंजाम नहीं दे सकता, किसी भी कार्य को सम्पन्न नहीं कर सकता।
मान लो, ईश्वरवादी स्वयं ईश्वर से पूछे कि हे प्रभो ! जब आप सब कुछ करने/कराने में समर्थ हो, अनन्त शक्तियों से सम्पन्न हो, सर्वज्ञ हो, भूत-भविष्य के सभी अच्छे-बुरे परिणामों (नतीजों) को जानते हो; फिर भी आप सृष्टि की ऐसी अटपटी संरचना करके स्वयं को एवं अन्य प्राणियों को संकट में डालते ही क्यों हो? मानव का इतना श्रेष्ठ सर्वसुविधा सहित शरीर बनाया, साथ ही उसके एक-एक रोम में ९६- ॥