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कहना पर्याप्त था कि 'खेद है कि आपने यह अपराध किया है। उनके आगे के पाँच कुलकरों ने 'हा' और 'मा' - इन दो दण्डों की व्यवस्था की थी अर्थात् खेद है कि तुमने अपराध किया, अब आगे मत करना।' शेष कुलकरों ने 'हा' 'मा' के साथ, धिक्, दण्ड की व्यवस्था की थी। धिक् का अर्थ है तुम्हें इस अपराध के लिए धिक्कार है जो रोकने पर भी अपराध करते हो । भरतजी के समय लोग अधिक अपराधी हो गये | थे, अत: उन्हें बन्धन आदि दण्ड व्यवस्था करनी पड़ी थी।
पौराणिक कथाओं में आठ आख्यान होते हैं। (१) लोक, (२) देश, (३) नगर, (४) राज, (५) तीर्थ, (६) तप-दान (७) गति और (८) फल।
लोक - जिसमें जीवादि पदार्थ अपनी-अपनी पर्यायों सहित देखे जायें, वह लोकाख्यान है। जहाँ जीवादि द्रव्यों का निवास हो, वह लोक है।
क्षेत्र - क्षेत्र की मुख्यता करते हुए वर्णन को क्षेत्र आख्यान कहते हैं। लोक का ही दूसरा नाम क्षेत्र है। इसीप्रकार देश, नगर, राज, तीर्थ तप व दान के वर्णन को क्रमश: देशाख्यान नगराख्यान, राजाख्यान आदि नामों से वर्णन किया जाता है। पौराणिक कथाओं में इन सबका वर्णन आवश्यकतानुसार यथास्थान होता है। अतः प्रस्तुत “शलाका पुरुष" ग्रन्थ में भी संक्षेप में उपर्युक्त सब आख्यान यथास्थान होंगे ही।
यहाँ आचार्य जिनसेन के लेखानुसार लोकआख्यान के अन्तर्गत लोक के कर्तृत्व की चर्चा अपेक्षित है। सृष्टि की संरचना और संचालन की दृष्टि से सभी दर्शनों को दो भागों में बांटा जा सकता है। निरीश्वरवादी
और ईश्वरवादी। निरीश्वरवादी दर्शन की मान्यतानुसार यह लोक अनादि-अनन्त है, इसे न किसी ने बनाया है और न कोई इसे नष्ट कर सकता। इसका रक्षक ये स्वयं है, यह अन्य किसी के द्वारा रक्षित भी नहीं है। वे वस्तुतः भ्रम में हैं जो लोक को ईश्वरकृत मानते हैं; क्योंकि सभी ईश्वरवादी आस्तिकों के मत में ईश्वर सर्वज्ञ, सर्वदर्शी और वीतरागी माना गया है। जिसका सम्पूर्ण राग बीत गया; समाप्त हो गया उसे लोक की | || रचना का राग कहाँ से आयेगा? जो सर्वज्ञ है, सर्वशक्ति सम्पन्न है। इसकी सृष्टि ऐसी दुःखमय, दुःखद और ॥
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