________________
REF
२४|| के उदय से लोगों को भूख तो खूब लगने लगी थी। कल्पवृक्ष बिल्कुल नष्ट हो गये थे; अत: प्रजा
का व्याकुल होना स्वाभाविक ही था। धान्य भरपूर होने पर भी उसका उपयोग करना न जानने से प्रजा परेशान थी। | अन्ततोगत्वा प्रजा उस युग के मुख्य नायक अन्तिम कुलकर श्री नाभिराय के पास गई और करबद्ध
प्रार्थना करके बोली कि - "हे नाथ ! कल्पवृक्षों के नष्ट हो जाने से हम लोग दुःखी हो गये। अब हम | पुण्यहीन किसप्रकार जीवित रहें। हे देव ! ये फलों से झुके हुए वृक्ष मानों हमें बुला रहे हैं, क्या हम इन फलों का सेवन कर सकते हैं ? या ये हमें त्याज्य हैं ? ये धान्य से भरे खेत हैं, इनका कैसे उपयोग करें ?"
राजा नाभिराय ने आश्वस्त करते हुए कहा - "आप लोग निर्भय रहें। यद्यपि कल्पवृक्ष नष्ट हो गये हैं; किन्तु ये फलों से बोझिल होने से नीचे की ओर झुके वृक्ष और अन्न से लहराते खेत ही तुम्हारे कल्पवृक्ष हैं, इनसे तुम्हें मनचाहे भोज्य सामग्री की प्राप्ति होगी। पर, ध्यान रहे ! इनमें कुछ वृक्ष जहरीले भी होते हैं, उनकी पहचान कर उन्हें दूर से ही तज देना । ये फल औषधियों के रूप में खाने योग्य पदार्थ हैं। इनका मसालों के रूप में उपयोग करने से भोजन सुपाच्य और स्वादिष्ट हो जाता है और ये स्वभाव से ही मीठे लम्बेलम्बे ईख के पेड़ दांतों से या यंत्र से पेल कर इनका रस पीने योग्य है।"
इसप्रकार राजा नाभिराज द्वारा बताये आजीविका और खान-पान की विधि जानकर प्रजा बहुत प्रसन्न हुई। भोगभूमि की व्यवस्था नष्ट हो चुकी थी। प्रजा का हित करनेवाले केवल नाभिराज ही थे।
यहाँ ज्ञातव्य है कि इन कुलकरों में कितने ही कुलकरों को जातिस्मरण ज्ञान (पूर्वभव का ज्ञान) था, कितने ही अवधिज्ञानी थे। मानवों को जीवन दान देने के उपाय जानने के कारण इन्हें मनु भी कहते हैं और आर्य पुरुषों को कुल की भांति संगठित रहने का उपदेश देने के कारण इन्हें कुलकर कहते हैं। इन्होंने अनेक वंश स्थापित किए, इसकारण इन्हें कुलधर भी कहते हैं।
भगवान ऋषभदेव तीर्थंकर के साथ कुलकर भी थे - ये दोनों पदों के धारक थे। भरतजी चक्रवर्ती भी थे और कुलकर भी थे। आदि के पाँच कुलकरों ने 'हा' दण्ड की व्यवस्था की थी अर्थात् अपराधी से इतना