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जैन विद्या के आयाम खण्ड - ६
सहृदयता की प्रतिमूर्ति
डॉ० फूलचन्द जैन प्रेमी
आदरणीय डॉ० सागरमल जी के इस अभिनन्दन के अवसर पर उनकी सहृदयता आदि अनेक गुणों के विषय में लिखने हेतु एक साथ अनेक विचार आ रहे हैं किन्तु द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के अनुसार कुछ ही विचार व्यक्त करना अच्छा है । विगत बीस वर्षों से उनके साथ आत्मीयता, पारिवारिकता और उनसे प्राप्त अपार स्नेह एवं प्रोत्साहन उनकी सहृदयता का परिचायक हैं यद्यपि इनसे परोक्ष परिचय इससे भी पूर्व का है जब मैं पार्श्वनाथ विद्याश्रम में रहकर इसके तत्कालीन निदेशक आदरणीय डॉ० मोहनलाल जी मेहता जी के निर्देशन में पी-एच०डी० हेतु मूलाचार पर अनुसंधान कार्य कर रहा था । आदरणीय डॉ० मेहता जी ने उस समय आपके महत्त्वपूर्ण अप्रकाशित बृहद् शोध प्रबन्ध 'जैन-बौद्ध और गीता के आचार दर्शन का तुलनात्मक अध्ययन' (दो खण्डों में) के गहन अध्ययन हेतु सुझाव दिया था। इस आदर्श और तुलनात्मक गहन विवेचन युक्त मौलिक शोध-प्रबन्ध को पढ़कर मैं आश्चर्य चकित रह गया था और ऐसे उत्कृष्ट शोध-प्रबन्ध के लेखक-विद्वान् से मिलने-विचार-विमर्श करने की तीव्र अभिलाषा हुई । संयोग से जैन विश्वभारती, लाडनूं में तीन वर्ष तक प्राकृत एवं जैन विद्या के प्राध्यापक के रूप में कार्य करने के बाद मेरी नियुक्ति सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय में हुई और इधर आदरणीय डॉ० साहब का पार्श्वनाथ विद्याश्रम में निदेशक के रूप में शुभागमन हुआ।
मैं जब आदरणीय डॉ० साहब से मिला तब इनकी सहृदयता सौम्यता और सरलता से तो प्रभावित हुआ ही, जैन साहित्य और जैनविद्या के विकास एवं इनके व्यापक प्रसार-प्रचार के प्रति इनके मन में तीव्र अभिलाषा भी देखी । इनके कार्यकाल में पार्श्वनाथ विद्याश्रम का आशातीत विकास इसमें हुए अनुसंधान कार्यों की प्रचुरता और विपुल प्रकाशन की व्यापकता तथा अखिल भारतीय स्तर की अनेक संगोष्ठियों के आयोजन आदि अनेक कार्यों को देखकर कोई भी व्यक्ति इनके प्रभावक व्यक्तित्व और इनकी अदम्य क्षमता का अनुमान सहज ही लगा सकता है।
हृदय की उदारता, विशालता और विभिन्न सम्प्रदायों में समन्वय की भावना तो आपके रोम-रोम में समाई हई है। इसके अनेक प्रत्यक्ष उदाहरणों से प्राय: सभी परिचित ही है । यद्यपि जैन विद्या के क्षेत्र में कुछ विषयों पर मेरे आपसे स्पष्ट मतभेद रहे हैं और अनेक संगोष्ठियों पर कुछ मुद्दों पर मेरी आपसे नोंक-झोंक भी होती रही किन्तु यह आपके हृदय की विशालता ही रही कि आपने इन मतभेदों को कभी मतभेद के रूप में नहीं लिया और सदा ही सहृदयता और सदाशयता के साथ हँसकर स्वीकार किया एवं सदा एक जैसा स्नेहभाव तथा प्रोत्साहन बनाए रखा । आपके हृदय की विशालता का एक उदाहरण मैं कभी नहीं भूल सकता । जो कि 'मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन' नामक मेरे शोध-प्रबन्ध से संबंधित है । परम्परानुसार इस सम्बन्ध में कुछ मुद्दों पर मेरे और आदरणीय डॉ० सा० के मध्य विचारों में भिन्नता थी, इसके बावजूद उन्होंने यथावत् इसका सुन्दर प्रकाशन तो कराया साथ ही जनवरी १९८८ में संस्थान में सम्पन्न प्राकृत एवं जैन विद्या के प्रथम अधिवेशन के उद्घाटन के अवसर पर शताधिक विद्वानों के मध्य जैन विद्या के महामनीषी पं० दलसुखभाई मालवणिया जी के सान्निध्य में तत्कालीन केन्द्रीय संसदीय कार्य मंत्री श्रीमती शीला दीक्षित से इस शोधप्रबन्ध का भव्य विमोचन भी कराया । यह आपकी हृदय की उदारता, सहृदयता और विशालता का परिचायक है।
मैं आपके दीर्घायु एवं स्वस्थ सुखी जीवन की कामना करता हुआ हृदय से आपका अभिनन्दन करता हूँ। आप इसी तरह धर्म, दर्शन, साहित्य और समाज के विकास में सदा समर्थ और तत्पर रहकर अपने जीवन को धन्य करें-ऐसी वीतराग प्रभु से प्रार्थना है। *अध्यक्ष, जैन दर्शन विभाग, सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी ।
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