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जैन विद्या के आयाम खण्ड - ६
डॉ० सागरमल जैन : एक अप्रतिम व्यक्तित्व
डॉ० सागरमल जैन मेरे परम आत्मीय मनीषी विद्वान हैं। इनके व्यक्तित्व से मेरा प्रथम साक्षात्कार १९७४ की अक्टूबर में पूना में हो रहे अखिल भारतीय दर्शन परिषद् के अधिवेशन में हुआ । १५ सितम्बर, १९९४ को हाम्बुर्ग (जर्मनी) से चलकर रात में १६ सितम्बर को दिल्ली पहुंचा। लगभग तीन दिन दिल्ली में रुककर २० सितम्बर, १९७४ की सुबह गोरखपुर पहुँचा। माननीय डॉ० लक्ष्मी सक्सेना (पूर्व अध्यक्ष, दर्शन विभाग, गोरखपुर विश्वविद्यालय) ने डॉ० सभाजीत मिश्र एवं मुझे पूना में होने वाले अखिल भारतीय दर्शन परिषद् के अधिवेशन में भाग लेने के लिए कहा। साथ ही सुश्री कुसुम सिंह, सुश्री कञ्चन पाण्डेय एवं प्रीति अग्रवाल को भी साथ देने के लिए स्वीकृति दे दी। हम सभी अधिवेशन के प्रथम दिन अपराहन में संगोष्ठीकक्ष में सीधे पहुंचे। डॉ० मराठे ने हमें प्रो० एस० एस० बारलिंगे (अब दिवंगत) से मिलवाया । वहां मुझे अतिथिगृह में डॉ० सागरमल जैन के साथ में रखा गया । प्रथम साक्षात्कार में मेरे अल्हड़ मन को लगा कि यह व्यक्ति पता नहीं कब का मेरा आत्मीय है। डॉ० सागरमल की सरलता का संस्पर्श इतना जीवन्त था कि वें ज्यों ही १९७९ में पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान (अब पार्श्वनाथ विद्यापीठ) में निदेशक के रूप में आये, मेरे परम आत्मीय हो गये।
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मेरी आत्मीयता धीरे-धीरे गंभीर होती गयी। डॉ० जैन के सरल, उज्ज्वल एवं धवल चरित्र तथा उनके अध्यवसाय एवं कर्तव्य के प्रति निष्ठा के भाव में मुझे अपनी छवि दिखाई दी। वे उसी अधिवेशन में अखिल भारतीय दर्शन परिषद् के कोषाध्यक्ष चुन लिए गए । १९८० में मुझे संयुक्त मंत्री बनाया गया। डॉ० सागरमल जैन को कोष में मात्र ३२०० रुपये दिये गए, ऊपर से दार्शनिक त्रैमासिक का एक बड़ा बैकलाग भी मिला। उसी समय प्रो० नन्दकिशोर देवराज को त्रैमासिक का सम्पादकत्व दिया गया। डॉ० देवराज आज देश के प्रसिद्ध चिन्तक हैं। विभाग में मुझे उनका स्नेह मिला एवं उनकी कार्यशैली डॉ० सागरमल जैन ने अपनी तत्परता से त्रैमासिक का सारा बैकलाग यथाशीघ्र प्रकाशित कर त्रैमासिक को सामयिक कर दिया । मात्र १०-१२ वर्ष के कोषाध्यक्ष के कार्यकाल में डॉ० सागरमल जैन ने कोष को ३२०० रुपये से लगभग ६५,०००-०० रुपए कर दिया। इस बीच म०प्र० शासन के निर्देशानुसार उन्हें सन् १९८५ में इन्दौर जाना पड़ा। संस्थान में कुछ लोगों ने ऐसा प्रयास किया कि वे वाराणसी न लौट पायें उत्पन्न परिस्थितियों से डॉ० सागरमल और उनके परिजन भी उनके वाराणसी लौटने के सम्बन्ध में अन्यमनस्क हो रहे थे। उनके शुभैषी मेरे पास आये। इस दुःखद तथ्य से मुझे अवगत कराया गया। डॉ० जैन के पारदर्शी चारित्र एवं उनके विनय से मैं इतना अभिभूत था कि मेरी हार्दिक इच्छा थी कि वे वाराणसी पुनः लौटें उनके विश्वस्त सूत्रों के माध्यम से उन्हें बुलवाकर पुनः प्रतिष्ठित करने का प्रयास किया जो अन्ततः सफलीभूत भी हुआ।
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डॉ० रेवतीरमण पाण्डेय
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डॉ० सागरमल जैन ने संस्थान के विकास हेतु मुझे दिल्ली के जैन समाज के कुछ धन कुबेरों से भी मिलवाया। इन लोगों में संस्थान के वर्तमान मंत्री श्री भूपेन्द्रनाथ जैन का व्यक्तित्व बड़ा उदात्त एवं कर्मयोगी लगा। पार्श्वनाथ विद्यापीठ प्रगति के जिन सोपानों पर आज चढ़ सका है उसमें इन दोनों व्यक्तियों का बहुत बड़ा योगदान है।
पार्श्वनाथ विद्यापीठ के हीरक जयन्ती के शुभअवसर पर इन बन्धुद्वय का मैं हार्दिक अभिनन्दन करता हूँ। आप दोनों
के प्रयास, तपस्या व उदार दृष्टि का ही प्रतिफल है कि आज विद्यापीठ उच्चानुशीलन की दृष्टि से जैन विद्या का एक प्रतिष्ठित संस्थान बन गया है । विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की तीन-तीन टीमें विद्यापीङ्ग को मान्यविश्वविद्यालय का दर्जा देने के सन्दर्भ में विजिट कर चली गयीं। पूरे जैन समाज के लिए यह एक चुनौती है। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के पार्श्व में जैन विश्वविद्यालय की उतनी ही आवश्यकता है जितनी तिब्बती संस्थान के रूप में बौद्ध विश्वविद्यालय की पार्श्वनाथ विद्यापीठ अभी तक मान्यविश्वविद्यालय क्यों नहीं बन सका यह विचारणीय है अकादमीय रूप से शीर्षस्थ होकर भी यदि धनाभाव इसे । मान्यविश्वविद्यालय का दर्जा प्राप्त होने में बाधक है तो यह प्रश्न जैन समाज और प्रशासन दोनों के लिए चिन्तनीय है और इसे शीघ्र ही मान्यविश्वविद्यालय घोषित कराने का प्रयत्न करना चाहिए। संस्थान जो आज विश्वविद्यालय होने की दहलीज
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