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जैन विद्या के आयाम खण्ड - ६
एक अविस्मरणीय व्यक्तित्व : डॉ० सागरमल जैन
डॉ० रमेश चन्द्र गुप्त -
वर्ष १९७९ में एम० ए० (भारतीय दर्शन एवं धर्म) प्रथम वर्ष की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद द्वितीय वर्ष में यह प्रश्न पैदा हुआ कि स्पेशल पेपर की जगह पर क्या लिया जाय । उसी समय ज्ञात हुआ कि पार्श्वनाथ विद्यापीठ के निदेशक पद पर डॉ० सागरमल जी जैन ने कार्यभार ग्रहण किया है और वह ही अब काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के दर्शन विभाग में जैन विषय से सम्बन्धित पेपर के लिये कक्षाएं लिया करेंगे। उसी प्रकरण में प्रथम बार १९७९ में मैं डॉ० जैन साहब से मिला । तभी से मेरे मन पर डॉ०साहब के सरल,सहज एवं मृदुल स्वभाव की ऐसी अमिट छाप पड़ी और मैंने जैन स्पेशल . पेपर लेने का निर्णय ले लिया तथा यह भी निश्चय कर लिया था कि अगर अवसर मिला तो जैन धर्म से सम्बन्धित विषय पर ही पी-एच०डी० हेतु शोध कार्य डॉ० साहब के ही निर्देशन में करूँगा। तदनुसार डॉ० साहब के निर्देशन में 'खतीर्थंकर, बुद्ध और अवतार की अवधारणाओं के तुलनात्मक अध्ययनङ्ग' विषय पर शोध कार्य किया। शोध कार्य के काल में दो बार डॉ० साहब के पैतृक निवास शाजापुर भी गया । वहाँ पर डॉ० साहब एवं उनके समस्त परिवार जनों ने भरपूर प्यार दिया, जिसको मैं आजन्म नहीं भुला सकूँगा । डॉ० साहब को मैं अंकल जी एवं उनकी धर्मपत्नी श्रीमती कमला जैन को आंटी जी के समान मानता हूँ और वह भी मुझे पुत्रवत स्नेह करते हैं।
वर्ष १९७९ अप्रैल से १९९७ तक बराबर डॉ० साहब के यहाँ मेरा आना जाना लगा रहा तथा समय-समय पर परिवार के सदस्य के रूप में उन्होंने उचित मार्ग दर्शन एवं प्यार दिया है। १९९७ में डी०रे०का० से अवकाश प्राप्त करने के बाद भी मेरी इच्छा यही है कि डॉ० साहब के सान्निध्य में रहकर माँ सरस्वती की साधना करता रहूं । ऐसा है डॉ० साहब का व्यक्तित्व ।
मैं श्रद्धेय डॉ० साहब एवं आन्टी जी (श्रीमती कमला जैन) के चिरायु होने की मंगल कामना करता हूँ। *संस्थापक, बाल विद्यापीठ, आँवला (बरेली)
मंगल कामना
डॉ. विजय कुमार जैन* डॉ० सागरमल जी को विगत २० वर्षों से जानता हूँ। आपका वाराणसी प्रथम आगमन जब हुआ तब उनके प्रथम बैच के छात्रों में से मैं भी एक हूँ। यद्यपि पी-एच०डी० के लिए मेरा रजिस्ट्रेशन आपके निर्देशन में नहीं हुआ लेकिन आपका मार्ग-निर्देशन एवं सान्निध्य बना रहा । आपके आगमन के साथ ही वाराणसी में स्थित पार्श्वनाथ जैन विद्याश्रम जो बीच में सुप्त सा हो गया था । जागृत हो गया एवं वाराणसी में जैन विद्या का अलख जगाने का काम किया ।
जैन विद्या के क्षेत्र में कार्य कर रहे विद्वानों एवं उनमें सहयोगी विद्वानों को जुटाने में आपने अग्रणी भूमिका निभायी। खोज-खोजकर प्रतिभाओं को निखारने एवं उनको सम्मानित कर आपने जैनविद्या के क्षेत्र में कार्य करने की प्रेरणा दी।
आपका सहज व्यवहार सभी को आकृष्ट करता है । जीवन भर जिन्होंने प्रतिभाओं को सम्मानित किया है । ऐसे पारखी विद्वान का अभिनन्दन करके निश्चित ही आयोजन समिति ने अभिनन्दनीय कार्य किया है।
मैं कामना करता हूँ कि डॉ० साहब दीर्घायु हों और जैन विद्या के विकास में अपना योगदान करते रहें । *अध्यक्ष-बौद्धदर्शन विभाग, केन्द्रीय संस्कृत विद्यापीठ, गोमतीनगर, लखनऊ
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