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सम्पादकीय वक्तव्य निकल जाने पर आने से कटु अनुभव भी हुये। फिर भी प्रेमी लेखकों ने हमें सहर्ष सहकार दिया इसके लिये सम्पादक-मण्डल उन सभी का ऋणी है और उन सब का आभार मानना अपना कर्त्तव्य समझता है। प्रारंभ से ही श्री विजययतीन्द्रसूरिजी और मुनिराजश्री विद्याविजयजी तथा उनके आज्ञानुवर्ती अन्य साधु-समुदाय का पूर्ण सहयोग इस कार्य में रहा है। खास कर आचार्य विजयराजेन्द्रसूरि के जीवन संबंधी विभाग का सम्पादन तो इनके सहकार के बिना असंभव था। हम यहां उन सभी के प्रति आभार प्रदर्शित करते हैं और बिना द्रव्य-सहायता के प्रकाशनकार्य होना संभव नहीं, अतः उन दानदाताओं का भी आभार मानते हैं। ____ आचार्य विजयराजेन्द्रसूरिजी के जीवन और कार्य के परिचय के अतिरिक्त जैन धर्म और संस्कृति का परिचय देना यह भी जो इस स्मारक ग्रंथ का प्रयोजन था इसमें हमें कहांतक सफलता मिली है यह निर्णय तो विज्ञ पाठकों पर ही छोड़ते हैं।
अंत में श्री महोदय प्रिं. प्रेस के अधिकारी श्री गुलाबचंद लल्लुभाई का भी हम आभार माने बिना नहीं रह सकते कि जिन्होंने ग्रंथ को महोत्सव के अवसर पर सुन्दर आकृत्ति में पहुँचाने में श्रम की सर्व दिशाओं को खोल दिया।
संपादक-मण्डल:
अगरचंद नाहटा, बीकानेर २७ अप्रिल १९५७,
दलसुख मालवणिया, बनारस शनिश्वर
दौलतसिंह लोढ़ा, धामणिया 'जयमिक्खु', अहमदाबाद अक्षयसिंह डांगी, शाहपुरा
(१) उदार सम्पादक-मण्डल ने जो प्रायः समस्त श्रेय मेरे पर चढ़ा दिया है, यह उनकी स्नेहपूर्ण कृपा का फल है । परन्तु जो कुछ सफलता हुई है वह उनके सस्नेह सहयोग, श्रम और उनकी व्यापक प्रसिद्धि और परिचय के ही कारण है।
(२) मुझको वाचन में जो महान् दर्द हुआ तो वह विद्वान् लेखकों की निश्चित चलनेवाली लेखनी से सर्जन पाते हुये कई एक शब्दों की विकृत एवं अस्पष्ट आकृतियों पर। विद्वानवर इस ओर ध्यान देंगे तो मेरे जैसे भाइयों का वे भविष्य में बड़ा भला करेंगे। विचारा सम्पादक व्यर्थ ही बुरा बनता है। यहां दोषित तो मैं भी हूँ। पर इस दोष का कटु अनुभव मुझ को इस समय हुआ।
- संपा, दौलतसिंह लोढ़ा