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गुरु और शिष्य के बीच का संबंध कोई हिसाब-किताब लगा कर बनाया संबंध नहीं होता है। जब सद्गुरु हो जाता है तुम्हारे लिए केवल एक मात्र सद्गुरु... ऐसा नहीं होता कि केवल वही है सद्गुरु, बहुत से हैं, लेकिन सवाल इसका नहीं.. .जब शिष्य के लिए सद्गुरु हो जाता है एक मात्र सद्गुरु, जब सारा इतिहास, अतीत और भविष्य फीका पड़ जाता है इस व्यक्ति के सम्मुख, हर चीज मद्धिम पड़ जाती है और केवल यही व्यक्ति बना होता है तुम्हारे हृदय में, केवल तभी कुछ संभव होता है।
इसी कारण बहुत सारी समस्याएं उठ खड़ी होती हैं। कोई पड़ जाता है बुद्ध के प्रेम में। तब वह कहता है कि 'बुद्ध ही हैं एकमात्र बुद्ध पुरुष। 'तब वह कहता है, 'ठीक है-जीसस हैं, कृष्ण हैं, तो भी बुद्ध की भांति नहीं हैं। ' तब जीसस और कृष्ण बाहर कर दिये गये परिधि पर। केंद्र पर, मंदिर के हृदय में ही, या हृदय के मंदिर में, केवल बुदध रहते हैं। शिष्य के लिए यह बात पूर्ण रूप से सत्य होती है। यदि कोई जीसस के प्रेम में पड़ता है तो जीसस आ जाते हैं केंद्र में, बुद्ध, महावीर और मोहम्मद सभी परिधि पर होते हैं। जब सद्गुरु हो जाता है सूर्य की भांति और तुम उसके चारों ओर घूमते हो पृथ्वी की भांति, नक्षत्र की भांति, वह बन जाता है तुम्हारा केंद्र, तुम्हारे जीवन का सच्चा केंद्र। केवल तभी संभव होता है कुछ, उससे पहले बिलकुल नहीं।
'मात्र ठीक' बिलकुल ठीक नहीं। 'मात्र ठीक' का तो मतलब हुआ लगभग गलत। 'मात्र ठीक' के जाल से निकल आने की कोशिश करना। यदि तुम मेरे पास आते हो उमड़ाव के पूरे अतिरेक से, केवल तभी तुम पाओगे मुझे। यदि तुम मेरे पास आते हो स्वरा से, जितनी तेजी से दौड़ सकते हो उतनी तेजी से दौड़ते हुए, केवल तभी तुम पाओगे मुझे। यदि तुम पूरी तेजी से, बिना आगे पीछे देखे मुझमें कूद पड़ते हो, केवल तभी तुम पाओगे मझे। यह तो बहत व्यापारिक रंग-ढंग हो जाता है, जब तुम कहते हो, 'मात्र ठीक!' या तो इससे बाहर हो, इससे आगे बढ़ो या मुझसे दूर चले जाओ। शायद कहीं किसी और के प्रेम में तुम पड़ सको। क्योंकि सवाल इसका नहीं कि तुम 'अ' नामक सद्गुरु के या 'ब' नामक सद्गुरु के या 'स' नामक सद्गुरु के प्रेम में पड़ते हो-बात यह नहीं होती। बात यह होती है कि तुम प्रेम में पड़ते हो। जहां कहीं यह घटता हो, वहीं चले जाओ। यदि संबंध है 'मात्र ठीक' तब मैं नहीं हं तुम्हारा सद्गुरु, तब तुम नहीं हो मेरे शिष्य। 'क्या, पुराने अनुभव के कारण, पुरुषों के विषय में बन गए मेरे अनिश्चित भावों के कारण ऐसा है?' नहीं, पुरुषों के लिए तुम्हारे अनिश्चित भावों के कारण ही ऐसा नहीं है। यह तुम्हारे कारण ही है, तुम्हारे अहंकार के कारण। पुरुषों के लिए तुम्हारी अनिश्चितताए भी तुम्हारे अहंकार के कारण हैं। वे भी हैं तो इसी कारण। यदि कोई स्त्री किसी पुरुष के प्रति समर्पण नहीं कर सकती है, तो ऐसा इसलिए नहीं होता कि पुरुषों की कमी होती है या कि मिलते ही नहीं। ऐसा केवल इस कारण होता है कि स्त्री विकसित नहीं हुई होती। केवल विकसित व्यक्ति समर्पण कर सकता है, क्योंकि विकसित ही इतना साहसी हो सकता है कि समर्पण कर सके। स्त्री बचकानी बनी रही हो, अवरुद्ध रही हो, तो हर पुरुष के साथ समस्या ही आ बनेगी।