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अर्थ आगम में विस्तार से सत्तरह प्रकार के मरण कहे गये हैं। मैं (ग्रन्थकार) उनमें से केवल पाँच
प्रकार के मरणों को ही यहाँ संक्षेप से कहता हूँ ॥ २८ ॥
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मरणकण्डिका- ११
(१)
बाल-मरणाधिकार
भरण के भेद
विस्तरेणागमोक्तेषु मध्ये सप्तदशस्वहम् ।
मरणान्यत्र पञ्चैव, कथयामि समासतः ॥ २८ ॥
प्रश्न मरण किसे कहते हैं ? अथवा मरण क्या है ?
उत्तर - तत् पर्याय के विनाश का नाम मरण है किन्तु विनाश स्थिति के बिना नहीं होता, इसलिए मरण भी जीवनपूर्वक होता है, और जीवन जन्म पूर्वक होता है, क्योंकि जो उत्पन्न नहीं हुआ उसकी स्थिति नहीं होती। इसलिए आगम में प्राणग्रहण को जन्म और प्राणत्याग को मरण कहा है।
प्रश्न
सत्तरह प्रकार के मरण कौन-कौन से हैं और उनके लक्षण क्या हैं?
उत्तर
भगवती आराधना ग्रन्थ में उन मरणों के नाम और लक्षण इस प्रकार कहे गये हैं। यथा -
१. आवीचिमरण - बीचिनाम तरंग का है। यहाँ आयु कर्म के उदय को वीचि कहा है क्योंकि आयु का उदय प्रति समय होता है अतः प्रति समय आयु का एक-एक निषेक उदय में आकर खिरना या समाप्त होना आवौचिमरण कहलाता है।
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२. तद्भवमरण
भवान्तर की प्राप्तिपूर्वक वर्तमान भव का विनाश तद्भवमरण है।
३. अवधिमरण - वर्तमान में जितनी और जैसी आयु भोग रहे हैं तथा वर्तमान पर्याय में जैसा मरण प्राप्त हुआ है, आगामी भव में उतनी, वैसी आयु एवं उसी प्रकार से मरण को प्राप्त होना अवधिमरण है।
४. आदि - अन्तमरण वर्तमान मरण से भावि भरण असमान होना ।
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५. बालमरण - चारित्रहीन समीचीन तत्त्वश्रद्धानी का मरण बालमरण है।
६. पण्डितमरण - चारित्रवान सम्यग्दृष्टि का मरण पण्डितमरण है।
७. अवसन्न-मरण - ऋद्धियों के प्रेमी, रस युक्त आहार में आसक्त, कषायों में संलम, आहारादि संज्ञाओं के आधीन, पापवर्धक शास्त्रों के अभ्यासी, तेरह प्रकार की क्रियाओं में आलसी, भोजन और उपकरणों से प्रतिबद्ध, निमित्तशास्त्र, मंत्र एवं औषधि से आजीविका करने वाले, गुप्तियों और समितियों में उदासीन, संवेगभाव में मन्द, गृहस्थों को रंजायमान करने के मन वाले तथा उनकी वैयावृत्य करने वाले, गुणों से हीन, सदोष चारित्र वाले तथा जिन्हें संयमियों के संघ से निकाल दिया गया है ऐसे पार्श्वस्थ आदि साधुओं को अवसत्र कहते हैं और इनके मरण को अवसन्न मरण कहते हैं ।