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परणकण्डिका - १०
अर्थ - वैसे ही श्राप गुप्ति, भूगल एवं गोग आदि गीलर्मला सतत अभ्यास करने वाला साधु मरणकाल की पीड़ा में भी ध्यानादि करने में समर्थ रहता है ।।२४ ।।
प्रश्न - यहाँ श्रामण्य का क्या अर्थ है?
उत्तर - श्रामण्य का अर्थ समता है। अर्थात् जीवन-मरण में, लाभालाभ में, सुख-दुख में एवं बन्धु और 3री में समान भाव रखना समता है किन्तु ऐसी समता गुमि, ध्यान एवं योग आदि परिकर की साधना के बिना प्राप्त नहीं होती।
दृष्टान्त-दार्टान्त द्वारा अभ्यास का फल कृत-योग्य-क्रियो युद्धे, जगतीपति-देहजः । आदत्ते विद्विषो जित्वा, बलाद्राज्य-ध्वजं यथा ।।२५।। साधुर्भावित चारित्रो, गृह्णीते संस्तराहवे।
आराधना-ध्वजं जित्वा, मिथ्यात्वादि-द्विषस्तथा ।।२६॥ अर्थ - जैसे राजा का पुत्र पहले शस्त्र-संचालन आदि की योग्य क्रिया का अभ्यास करता है, पश्चात् युद्धभूमि में जाकर तथा शत्रुओं को जीतकर बलात् उनकी राज्यध्वजा हस्तगत कर लेता है ।।२५।।
वैसे ही जिसने जीवन में उत्तम रीति से चारित्र की आराधना की है वह साधु संस्तरारोहण करके मिथ्यात्व आदि शत्रुओं को जीत कर आराधनारूपी ध्वजा को हस्तगत कर लेता है ।।२६ ॥
बिना अभ्यास आराधना की सिद्धि हो जाने पर भी वह प्रमाणयोग्य नहीं है
यद्यभावित-योगोऽपि, कोप्याराधयते मृतिम्।
तत्प्रमाणं न सर्वत्र, स्थाणु-मूल-निधानवत् ॥२७ ।। अर्थ - ध्यान आदि परिकर का सतत अभ्यास न करने वाला भी यदि कोई मरण समय में आराधना की सिद्धि कर ले तो वह 'स्थाणुमूलनिधानवत्' है। वह सर्वत्र प्रमाण नहीं है॥२७॥
प्रश्न - 'स्थाणुमूलनिधानवत्' इस पद का अर्थ क्या है और यह दृष्टान्त किस प्रयोजन से दिया है ?
उत्तर - इस पद का अर्थ है - (ठ की जड़ में रखा हुआ धन । यह दृष्टान्त और इसका प्रयोजन इस प्रकार है-मार्ग में गमन करने वाले किसी सूरदास का मस्तक दूंठ से टकरा गया, उसे पीड़ा तो अवश्य हुई किन्तु मस्तक का विकारी रक्त निकल जाने के कारण नेत्रों में ज्योति आ गई और वह जीर्ण ढूँठ उखड़ जाने से उसके मूल अर्थात् जड़ में रखा हुआ धन का घड़ा प्राप्त हो गया। ऐसा कार्य क्वचित् कदाचित् ही सम्भव है। सर्वत्र इसकी सम्भावना नहीं है। उसी प्रकार यदि किसी पुण्य पुरुष को ध्यानादि परिकर की सतत साधना के बिना ही आराधना की सिद्धि हो जाती है तो भी वह सब साधकों के लिए सम्भव नहीं है, अत: सभी को प्रमाद छोड़ कर आत्मसिद्धि के अनुकूल सतत साधना करनी चाहिए।
॥ इस प्रकार पीठिका समाप्त हुई।