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उचित समझकर (डॉ० रुद्रदेव त्रिपाठी के परामर्श से) इसका दायित्व व्याकरण-साहित्याचार्य, डॉ. हर्षनाथ मिश्र को सोंपा गया था। उन्होंने भी इस क्लिष्ट कार्य को पूरे उत्साह के साथ पूर्ण किया तदर्थ वे भी धन्यवादाह हैं।
आज के युग में यह और इसके समान ही दुर्गम माने जानेवाले अन्य ग्रन्थों के पठन-पाठन का स्तर बहुत कम हो गया है। अतः इस ग्रन्थ को पढ़नेवाले दो-चार निकलें तब भी अहोभाग्य ! किन्तु हमारा तो उद्देश्य है कि जैसे "भूतकाल में काल के गर्त में उनकी अनेक कृतियाँ समा गईं, वैसा न हो और ये कृतियाँ सुरक्षित बनी रहें", इस दृष्टि से ही यह प्रयत्न है। जैनधर्म का सिद्धान्त है कि 'सौ में से एक व्यक्ति ही यदि धर्म का पालन करे तो सामनेवाले प्रेरक का पुरुषार्थ सफल है।'
प्रसिद्ध नाटककार आचार्य श्री भवभूति की 'उत्पत्स्यतेऽत्र मम कोऽपि समानधर्मा' इस उक्ति का विचार करें तो भविष्यकाल में ऐसे ही दूसरे यशोविजय के निर्माण में ये कृतियाँ निमित्त बनेंगी तब वस्तुतः हमारा प्रयास सफलता का वरण करेगा। मेरी भावना और चिन्ता
मेरे मन में वर्षों से एक उत्साह-एक भावना रहती थी कि पू० उपाध्यायजी की मेरे द्वारा शक्य ऐसी कृतियों का संशोधन, सम्पादन अथवा अनुवाद आदि का कार्य मैं स्वयं करके उनकी श्रुतसेवा का यत्किञ्चित् लाभ क्यों न प्राप्त करूं ? अतः मैं प्रतिवर्ष इसके लिए यथायोग्य यथाशक्ति प्रयत्नशील रहता था, किन्तु पहले तो मेरे नित्यमित्र शरीर की चिरस्थायी बनी हुई प्रतिकूलता और इसके कारण उपजने वाले कार्यान्त राय तथा दूसरी मेरी विविध कारणों से विविध प्रकार की व्यस्तता, इस कारण मझे लगा कि अब मुझे इस सम्बन्ध की ममता अथवा मोह को छोड़ ही देना चाहिये। किन्तु साथ ही यह विचार भी आता कि मोह-ममता को छोड़ तो दूं पर कार्य का भार उठानेवाला यदि कोई नहीं मिले तो क्या करना ? इसी बीच भले ही दीर्घकाल के बाद, किन्तु मेरे पुराने मित्र साहित्य-सांख्ययोगाचार्य डॉ० रुद्रदेव त्रिपाठी का दिल्ली से बम्बई आना हुआ, तब वे मुझे मिलने आये, उस समय मैंने उनसे कहा कि "पण्डितजी ! अब अकेले हाथों सभी उत्तरदायित्वों का वहन कर सकूँ ऐसी मेरी स्थिति नहीं रही, इस कार्य में अन्य कोई सहायक नहीं है. यह देखते हुए यदि अब मैं प्रस्तुत कार्य की ममता अथवा मोह पर पूर्ण
थवा अर्धविराम नहीं लगाऊँ तो प्रस्तुत प्रकाशन प्रकाशनों का प्रकाश कब देखेंगे? यह चिन्ता बनी रहती है।" उन्होंने मेरी विवशतापूर्ण यह बात सुनी और सहृदयी परमोत्साही पण्डितजी ने मेरे कार्य में सहयोगी बनने को सहर्ष स्वीकृति दी। तब मैंने इन्हें 'स्तोत्रावली' तथा 'काव्यप्रकाश' की संशोधित एवं सम्पादित प्रेसकॉपियां छपाने के लिये दीं। दिये हुये कार्य को यथासमय करके प्रथम स्तोत्रावली' का मुद्रणसम्पादनादि कार्य पूरा किया और वह ग्रन्थ 'यशोभारती जैन प्रकाशन' के चतुर्थ पुष्प के रूप में प्रकाशित भी हो गया है।
अब आज काव्यप्रकाश के एक अंश की टीका का प्रकाशन भी इनके पूर्ण परिश्रम के बाद प्रकाशित हो रहा है, अतः पण्डितजी को बहुत-बहुत हार्दिक धन्यवाद देता है।
यह प्रकाशन मेरे द्वारा स्वीकृत पद्धति और दी गई सूचना तथा परामर्श के अनुसार होने से इस. का मुझे सन्तोष हुआ है।