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शिवसहा मिथिलेशादवाप यो मन्त्रितां विबुधः । तस्याच्युतस्य सूनुर्बभूव भुवि रत्नपाणिरथम् ॥
यह पद्य लिखकर अपना परिचय दिया है। रत्नपारिण का उपनाम 'मनोधर' था। अग्रिम टीकाकारों ने 'इति मनोधरप्रभृतयः' लिखकर ही इनका उल्लेख किया है ।
[ १७ ] टोका - म० म० पक्षधर मिश्र ( सन् १४५४ ई० )
इनका वास्तविक नाम 'जयदेव मिश्र' है किन्तु शास्त्र - विचारणा में किसी दुर्बल पक्ष का आश्रय लेकर भी अपने बुद्धिवैभव से उसका सम्यक् समर्थन करने के कारण ये 'पक्षधर' नाम से प्रसिद्ध हो गये। अपनी काव्य- कुशलता के कारण इन्हें 'पीयूषवर्ष' उपाधि से भी अलङ्कृत किया गया था। शाण्डित्य गोत्रीय मैथिल पं० महादेव मिश्र के ये । पुत्र मौर अपने पितृव्य म० म० हरिमिश्र से सकल शास्त्रों का अध्ययन करके इन्होंने गङ्ग ेश उपाध्याय की न्यायचिन्तामरिण पर 'आलोक' एवं वर्धमान उपाध्याय की 'द्रव्य किरणावली' पर 'प्रकाश' नामक टीकाएँ तथा 'न्यायपदार्थमाला', 'प्रसन्नराघव' (नाटक) और 'चन्द्रालोक' जैसे २२ ग्रन्थों की रचना की थी। इनके द्वारा १४५४ ई० की 'अमरावती' में लिखित 'विष्णुमहापुराण' की प्रति का यह अन्तिम पद्य इनके स्थिति समय का परिचायक है
aria तं शम्भुनयनैः सङ्ख्यां गते ( ३४५) हायने, श्रीमङ्गो महीभुजो गुरुदिने मार्गे च पक्षे सिते । षष्ठयां ताममरावतीमधिवसतु या भूमिदेवालया, श्रीमत्पक्षधरः सुपुस्तकमिदं शुद्धे व्यखीदिदम् ॥
यह पुस्तक श्राज भी दरभङ्गा जिले के 'योगियाड़' गाँव में स्व० नैयायिक केशवशर्मा के घर में विद्यमान है । यह अमरावती प्राचीन कमला नदी के किनारे पर 'कोइलख' गाँव से ६-७ मील दूर थी, सोलहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में विपक्षियों से आक्रान्त होने पर मिथिलाधिपति महेश ठक्कुर के मध्यम पुत्र अच्युत ठक्कुर ने इसे नामशेष कर दिया था, ऐसा 'मिथिला तत्त्वविमर्श' का मत है। तथा कवि शेखर बद्रीनाथ झा का यही अभिमत है ।
[१८] टीका - पद्मनाभ मिश्र ( १४वीं शती ई० )
ये पं० महाकवि विद्यापति के समकालिक, मैथिल दीर्घघोष (दिघवर) वंशीय, 'वाणीभूषण' नामक छन्द:शास्त्रीय ग्रन्थ के निर्माता, मिथिलेश गणेश्वर सिंह के पुत्र कीर्तिसिंह के सभापण्डित दामोदर मिश्र के पुत्र थे । इन्होंने 'सुधाकर' आदि अनेक ग्रन्थों की रचना की थी । कमलाकर भट्ट ने अपनी टीका में इस टीका का उल्लेख किया है । इनका समय ईसा की चौदहवीं शती सम्भव है ।"
[ १६ ] टीका- रत्नेश्वर मिश्र ( १४वीं शती ई० )
भोज के 'सरस्वतीकण्ठाभरण' पर 'रत्नदर्पण' नामक टीका के लेखक के रूप में प्रसिद्ध रत्नेश्वर मिश्र हो इस टीका के रचयिता हैं । ये रामसिंह देव के आश्रित थे तथा उन्हीं की प्राज्ञा से कण्ठाभरण की इन्होंने टीका लिखी थी । यह बात सरस्वती - कण्ठाभरण के तृतीय परिच्छेद के अन्तिम पद्यों में कही गई है
१. कविशेखर श्री बद्रीनाथ झा का यह मत है । द्र० का० प्र० 'विवरण- भूमिका' पृ० ८ ।