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[ ६५ ] तात्पर्य विवृति- म०म० महेशचन्द्रदेव न्यायरत्न (१८८२ ई० रचनाकाल )
ये बङ्गाल के रहनेवाले तथा कलकत्तास्थित राजकीय महाविद्यालय के प्रधान आचार्य थे। इन्होंने अपनी इस टीका को १८८२ ई० में पूर्ण किया था। यही समय वामनाचार्य झलकीकरजी का भी रहा है। एक-दूसरे से दूर-दूर रहते हुए भी ये परस्पर परामर्श करके अपनी-अपनी टीकाएं लिख रहे थे।' इस विवृति का आकार छोटा ही है किन्तु यह सरल एवं बालोपयोगी है । इसमें जयराम, वैद्यनाथ, नागेश और प्रानन्द कवि की टीकाओं का उल्लेख भी हया है। इसका प्रकाशन कलकत्ता से हुआ था। [६६ ] बालबोधिनी- म० म० वामनाचार्य झलकीकर (१८८२ ई० रचनाकाल)
ये महाराष्ट के झलकी' ग्राम के निवासी थे। इनके माता-पिता का नाम सरस्वती और रामचन्द्र था तथा न्यायकोशकार श्री भीमाचार्य झलकीकर के ये लघूभ्राता थे। इनका गोत्र शालङ्कायन और तैत्तिरीय शाखा थी। ये पूर्णप्रज्ञ सिद्धान्तानुयायी एवं विट्ठल प्रभु के भक्त थे । काव्यप्रकाश को उपर्युक्त व्याख्या के अन्त में आपने अपना परिचय इस प्रकार दिया
देशे महा महाराष्ट्रे पनने पुण्यनामके । प्रधानपाठशालायामाङ ग्लभूपनियोगतः ॥ अलङ्कार-व्याकरणाध्यापकेन सुमेधसा । कर्णाटके जनपदे नानाविद्याविभूषिते ॥ बिजापुरप्रान्तजुषा झलकोग्रामवासिना । सरस्वतीगर्भभुवा महाराष्ट्रद्विजन्मना ॥ रामचन्द्रतनूजेत वामनाचार्यशर्मणा । काव्यप्रकाशटीकेयं प्रथिता बालबोधिनी॥ शाके वेदनमोऽष्टेन्दु (१८०४) प्रमिते मासि कातिके । सम्पूरिता शुक्लपक्षे टोकेयं प्रतिपत्तियो ।
प्रस्तत टीका में अनेक प्राचीन टीकाकारों की टीकाओं का पालोडन कर आवश्यक सामग्री का सङ्कलन किया गया है। स्वयं वामनाचार्यजी ने इसके सम्बन्ध में लिखा है -
प्रयत्नेन च सगृह्य समालोच्य च यत्नतः । सारं ताम्यः समुत्य टीकेयं क्रियते मया ॥
बालबोधिनी में पूर्वाचार्यों का अभिप्राय कहीं-कहीं अविकल रूप से तो कहीं अनुवाद के रूप में दिया है। उदधत सामग्री में टीकाकारों के नाम भी दिए हैं और जहाँ व्याख्या सुलभ नहीं हुई वहाँ स्वयं ने ब्याख्या की है।
इसमें अनेक स्थलों पर मतभेदपूर्वक की गई व्याख्याओं का तथा उद्धृत उदाहरणों के सन्दर्भ आदि का उल्लेख एव कठिन स्थलों का व्याख्यान तथा भावार्थ देने से टीका का कलेवर बढ़ गया है किन्तु इससे बालकों को बोध देने का उद्देश्य अवश्य पूर्ण हुआ है। इस टीका के निर्माण के समय विद्वान् टीकाकार ने तत्कालीन विद्वानों से परामर्श भी लिया था जिनमें पण्डित रामकृष्ण भाण्डारकर, पं० भीमाचार्यजी, महेशचन्द्रदेव आदि प्रमुख थे। इसका प्रथम प्रकाशन १८८३ ई० में हया था और आज तक उत्तरोत्तर शुद्धि-वृद्धि सहित कई संस्करण छप चुके हैं । इसकी भूमिका में टीकाकारों के बारे में अनेक तथ्य प्रस्तुत किये हैं जो उत्तरवर्ती अध्येताओं के लिये परमोपयोगी सिद्ध हुए हैं। टीका की रचना का उद्देश्य इन्होंने निम्न पद्य से व्यक्त किया है।
काव्यप्रकाश-गम्भीर-भावबोधो न चान्यतः । इति हेतोर्मया यत्नः कृतोऽयं विदुषां मुदे ॥
आजकल यही एक काव्य प्रकाश की ऐसी टीका है, जिसका अध्ययन-अध्यापन में बहुत ही प्रचार है। १. कहीं कहीं 'विवृति' के स्थान पर 'विवरण' नाम भी दिया है।
भलकीकरजी ने अपने काव्यप्रकाश और उसकी टीकावाले संस्करण की भूमिका में इनके साथ हए पत्र-व्यवहार का उल्लेख किया है । द्र०. पृ०. ३० ।